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वचन-संवर की महावीथी ७५७
टाइपराइटर की तरह क्रमबद्ध मंत्रोच्चारण भी सूक्ष्म चक्रों को जगा देता है
जैसे टाइपराइटर में अंगुलियों से चाबियाँ दबाई जाती हैं, तब कागज पर वे तीलियाँ गिरकर अक्षर छापने लगती हैं, उसी प्रकार टाइपराइटर की कुंजियों के स्थान में जो मुख में संलग्न उच्चारण में प्रयुक्त होने वाले कलपुर्जे हैं, मंत्रोच्चारण- अंगुलि से उसे दबाना है। यहाँ से उत्पन्न शक्ति प्रवाह नाड़ीतन्तुरूपी तीलियों के सहारे सूक्ष्मचक्रों और दिव्यग्रन्थियों तक पहुँच जाता है और उन्हें झकझोर कर जगाने और उठाने में संलग्न होता है। अक्षरों का छपना यहाँ वह उपलब्धि है, जो जागृत चक्रों द्वारा रहस्यमयी सिद्धियों के रूप में साधक को मिलती है।
क्रमबद्ध मंत्रजप से अलौकिक शक्तियों के जागृत होने का चमत्कार
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"पुलों पर से गुजरती हुई सेना के लेफ्टराइट के क्रम से जब तालबद्ध पैर पड़ते हैं तो उक्त ध्वनिप्रवाह की एकीभूत शक्ति उत्पन्न होती है। उस अद्भुत शक्ति के प्रहार से मजबूत पुलों में भी दरारें पड़ सकती हैं और भारी नुकसान हो सकता है। इसी प्रकार मंत्रजप में भी क्रमबंद्ध लगातार उच्चारण करने से उसी प्रकार का तालक्रम उत्पन्न होता है, जिसके कारण शरीर के अन्तःसंस्थानों में विशिष्ट प्रकम्पन (हलचलें ) उत्पन्न होते हैं। ये हलचलें उन अलौकिक शक्तियों की मूर्च्छना दूर करते हैं। उन शक्तियों के जागृत होने पर सामान्य मनुष्य को भी ये असामान्य चमत्कारों से समृद्ध कर सकती
डायनेमो का पहिया लगातार घूमने से बिजली उत्पन्न होती है, इसी प्रकार जप में शब्द प्रवाह के बार-बार गतिशील होने से घर्षण और विद्युत पैदा होती है। स्थूल शरीर • उत्तेजित हो जाने से सूक्ष्म शरीर (तैजस् शरीर) में भी उत्तेजना पैदा होती है। ऊर्जा शक्ति बढ़ जाती है। उस तेजोमयी आन्तरिक विद्युत् की वृद्धि से मूर्च्छित पड़ा हुआ अन्तर्जगत् नवजागरण का अनुभव करता है। वह जागृति केवल उत्तेजना ही नहीं होती, उसके साथ-साथ अन्य अनेक उपलब्धियों की सम्भावना भी जुड़ी रहती है।"
गायत्री मंत्र के क्रमबद्ध उच्चारण की प्रक्रिया भी शरीर में संलग्न सूक्ष्म शक्ति स्रोतों की मूर्च्छना जागृत कर प्रखरता और आवश्यक गतिशीलता समुत्पन्न करती है। प्रस्तुत गतिशीलता भी एक नहीं अपितु अनेक दिव्य उपलब्धियों के रूप में परिलक्षित हो • सकती है। तैत्तिरीयसंहिता में यही बात इन शब्दों में कही गयी है कि - गायत्री मंत्रों का उच्चारण मुख से लेकर नाभि पर्यन्त अपना प्रभाव विस्तीर्ण करता है।
१. अखण्ड ज्योति जनवरी १९७६ से साभार भावांश ग्रहण, पृ. ५९
" जानुदनं चिन्वीत प्रथमं चिन्वानो गायत्रियवेयं लोकमभ्यारोहति नाभिदध्नं चिन्वीत ॥”
-तै. सं. ५/६/८
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