SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 240
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७५६. कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आस्रव और संवर (६) है, तथैव दूध से घी निकाल कर छाछ को महत्वहीन समझ कर एक ओर रख दिया जाता है, उसी प्रकार जपयोग से ऐसी चेतन शक्ति का प्रादुर्भाव हो जाता है, जो जपकर्ता के तन-मन-वचन में विचित्र प्रकार की हलचलें उत्पन्न कर देती है, इतना ही नहीं, अनन्त आकाश में व्याप्त होकर विशिष्ट विभूतियों को आकर्षित करने तथा विशिष्ट परिस्थितियों एवं वातावरण के निर्माण करने का कार्य भी करती है।' मंत्रजप द्वारा शब्दशक्ति के चमत्कार ___ अभिप्राय यह है कि किसी भी आध्यात्मिक प्रयोजनात्मक मंत्र की प्रतिक्रिया दोहरी होती है। एक होती है-भीतर और दूसरी बाहर होती है। अग्नि जहाँ जलती है उस स्थान को तो गर्म करती ही है, साथ ही वायुमण्डल में भी ऊष्मा फैलाती है, और अपने प्रभाव क्षेत्र को भी उष्णता प्रदान करती है। इसी प्रकार विधिवत् लगातार अनवरत किया गया विशिष्ट चयनकृत शब्दों का मंत्रजप भी परिपार्श्व में प्रकम्पन उत्पन्न करता है, उससे जिस प्रकार की ध्वनि तरंगें पैदा होती हैं वे जपकर्ता के स्थूल और सूक्ष्म शरीर . पर बहुत बड़ा प्रभाव डालती हैं। ___ वास्तव में मंत्रजप का अविच्छिन्न ध्वनि प्रवाह नीचे समुद्र की गहराई में चलने वाली जलधाराओं की तरह तथा ऊपर आकाश में छितरा कर उड़ने वाली वायु की पतॊ की तरह अपनी हलचल उत्पन्न करता है। उसके कारण शरीर में सन्निहित अनेक चक्रों और उपत्यिकारे ग्रन्थियों में विशिष्ट स्तर का शक्ति संचार होता है। नियमित क्रम से एक-सी चलने वाली हलचलें ही ऐसा रहस्यमय प्रभाव उत्पन्न करती हैं। एक टन वजन का लोहे का गार्डर किसी छत के बीचोबीच लटका कर लोग जब पाँच ग्राम वजनदार कार्क की लगातार चोट लगाना शुरू कर देते हैं तो थोड़े ही समय में वह सारा गार्डर कांपने लगता है। जिस प्रकार लगातार एक गति से आघात क्रम से उत्पन्न होने वाली शब्दशक्ति का यह चमत्कार है, इसी प्रकार मंत्रजप भी अविच्छिन्न रूप से विधिवत निरन्तर एक गति से किया जाए तो उसका परिणाम भी ऐसा ही आता है। जप का शब्द प्रवाह भी सूक्ष्म शरीर (जैनदृष्टि से तैजस शरीर) में अवस्थित चक्रों और ग्रन्थियों को अपने ढंग से प्रभावित करता है और उससे उत्पन्न हुए प्रकम्पन उनकी मूर्च्छना दूर करके जागृति का नया दौर पैदा करते हैं। मंत्रजपकर्ता को ग्रन्थिभेदन एवं चक्र जागरण का अपूर्व लाभ प्राप्त होता है। जागृत हुए दिव्य संस्थान भी साधक में आत्मबल का संचार करते हैं। इस नवीन उपलब्धि से उसे अपने भीतर प्रत्यक्ष लाभ दृष्टिगोचर होने लगते हैं, उसे ऐसा प्रतीत होने लगता है कि मुझमें अभूतपूर्व शक्ति संचार हो रहा है। १. अखण्ड ज्योति जनवरी १९७६ से भावांश ग्रहण पृ. ५७ २. वही, जनवरी १९७६ से भावांश ग्रहण, पृ. ५८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy