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________________ आनव की बाढ़ और संवर की बांध ७१३ झड़कर अलग हो जाते हैं। कर्म बंधते नहीं, चिपकते नहीं। परन्तु जब तक आयुष्य कर्म शेष है, तब तक वे सयोगी केवली (सदेह परमात्मा) तेरहवें गुणस्थान में होते हैं, मन-वचन-काया के योगों से युक्त होते हैं। जब उनकीआयु अन्तर्मुहूर्तप्रमाण शेष रहती है, तब वे चौदहवें गुणस्थान में प्रवेश करते हैं। फिर क्रमशः योगों का निरोध करके वे शीघ्र ही शैलेशी, निष्प्रकम्प, अयोगी अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं। यही निर्वाण पद की प्राप्ति का सूचक है। आत्मा अयोगी भाव प्राप्त करके ही मोक्षारूढ़ हो पाता है; और अयोगीभाव प्राप्त होता है, त्रिविध योगों के पूर्णतया निरोध रूप संवर से। बृहत्कल्प भाष्य में बताया गया है कि 'जैसे-जैसे मन-वचन-काय के योग (स्पन्दन या चापल्य) अल्पतर होते जाते हैं, वैसे वैसे कर्मबन्ध भी अल्पतर होता जाता है। बन्ध अल्पतर होने से पूर्व होने वाला योग-आस्रव भी अल्पतर होना अवश्यम्भावी है। योग चक्र का पूर्णतः निरोध (संवर) होने पर आत्मा में बन्ध का अभाव हो जाता है। जैसे समुद्र में स्थित अच्छिद्र जलयान में जलागमन का अभाव हो जाता है।' अयोगसंवर प्राप्त होने पर आत्मा आध्यात्मिक विकास के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच जाता है। आत्मा के चारों निजी गुण सर्वात्मना प्रकट हो जाते हैं। अर्थात अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त अव्याबाध आत्मिकसुख (आनन्द) और अनन्तआत्मशक्ति-ये चारों आत्मगुण उस विदेह परमात्मा में पूर्णरूप से अभिव्यक्त हो जाते हैं। अयोग संवर प्राप्त होते ही पूर्ण संवर की सिद्धि और पूर्ण मुक्ति - सैद्धान्तिक भाषा में कहा जा सकता है, अयोग संवर प्राप्त होते ही पूर्ण संवर प्राप्त हो जाता है। प्रश्न होता है-पूर्ण संवर कैसे प्राप्त होता है ? उसकी प्रक्रिया क्या है ? ऊपर हमने उत्तरोत्तर आध्यात्मिक विकास की साधना के क्रम से पंचविध संवर का क्रम बताया है। दशवैकालिक सूत्र में भी उत्कृष्ट संवर धर्म प्राप्त करने तक की प्रक्रिया बताई गई है। उसमें जीव-अजीव-पुण्य-पाप-बंध-मोक्ष का सम्यक् ज्ञान, दिव्य एवं मानवीय भोगों से विरक्ति, बाह्य और आभ्यन्तर संयोगों (ग्रन्थियों-ममत्व सम्बन्धों) का त्याग, अनगार धर्म (व्रत संवर) का अंगीकरण, उत्कृष्ट संवर धर्म का स्पर्श, और (अप्रमाद तथा अकषाय संवर के बाद) केवलज्ञान-केवलदर्शन की प्राप्ति और तत्पश्चात् त्रिविध योगों का पूर्णतया निरोधरूप शैलेशी अवस्थाप्राप्त अयोग-संवर, जिसके फलस्वरूप पूर्णमुक्तिसिद्धि। यह क्रम है-पूर्णसंवरसिद्धि का . १. जहा जहा अप्पतरो से जोगो, तहा तहा अप्पतरो से बंधो। - निरुद्धजोगिस्स व से ण होति, अच्छिद्दपोतस्स व अंबुणाघे॥ २. देखें-दशवैकालिक अ. ४ गा. १४ से २५ तक। . -बृहत्कल्पभाष्य ३९२६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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