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________________ है। मीमांसा दर्शन के परम पण्डित कुमारिल भट्ट ने भोगायतन, भोग-साधन और भोग्य विषय-इन त्रिविध बन्धनों को जीव के भव-बन्धन का कारण कहा है। भोगायतन है, शरीर। भोग-साधन हैं, इन्द्रियां। भोग के विषय हैं-रूप, रस, गन्ध, स्पर्श एवं शब्द। अज्ञानवश जीव अनेक योनियों में भ्रमण करता है। वेदान्त दर्शनः वेदान्त को अद्वैत दर्शन कहा है। अद्वैत का अर्थ है-जहां पर दो तत्त्व नहीं, एक ही तत्त्व माना है। वह एक तत्त्व है, ब्रह्म। ब्रह्म के अतिरिक्त जगत् में अन्य कुछ भी नहीं है, जगत की विचित्रता विश्व की विविधता, अविद्याजन्य है। माया के कारण है। जगत भ्रम है, माया है। सर्वत्र चेतन है, जड़ कहीं है ही नहीं। यह सिद्धान्त ही अद्वैत के नाम से विख्यात है। अविद्या से काम उत्पन्न होता है। काम से कर्म उत्पन्न होता है। काम, इच्छा, आसक्ति से प्रेरित होकर प्राणी क्रिया करता है-कर्म हेतुः काम स्यात्। यही संसार-चक्र है। जो दिवा-निशा घूमता रहता है। यही है, बन्धन, जिसमें जीव बद्ध होकर अपने स्वरूप को भूल बैठा है। क्षणिक विषय सेवन में आसक्ति के कारण, उसके चित्त में कभी प्रसन्नता, तो कभी खिन्नता भी होती है। यही संसार का सुख-दुःख है,जो जीव के अपने शुभ-अशुभ कर्म के परिणाम रूप उसको इस जीवन में-जन्मान्तर में प्राप्त होता रहता है। वेदान्त में कर्म के तीन प्रकार हैंसंचित, क्रियमाण और प्रारब्धा प्रकारान्तर से भी कर्म के तीन अन्य भेद हो सकते हैं-विहित, निषिद्ध तथा उदासीन।चार्वाक दर्शन को छोड़कर भारत के अन्य दर्शन कर्म की सत्ता को किसी न किसी रूप में स्वीकार करते हैं। प्रक्रिया सबकी अलग-अलग है। इस मत में सब एक हैं, कि आसक्ति बन्धन का मूल है। कषायमूलक कर्म अवश्य अपना फल देता है। जैन दर्शन: - कर्म, बन्ध और मोक्ष के विषय में, जैन दर्शन के विद्वान विचारकों ने पर्याप्त चिन्तन, मनन एवं गम्भीर मन्थन किया है। समस्त जीवों में, तत्त्वतः साम्य है, तो फिर उनमें वैषम्य क्यों नजर आता है ? एक जीव में भी काल-भेद से, स्थिति-भेद से और क्षेत्र-भेद से वैषम्य क्यों होता है ? इन प्रश्नों का सम्यक् समाधान तथा इस प्रकार के अन्य प्रश्नों का उत्तर कर्मवाद से ही प्राप्त होता है। कर्मवाद,कर्म-मीमांसा, एवं कर्म सिद्धान्त जैनों का अपना स्वतन्त्र चिन्तन रहा है। कर्म सिद्धान्त की पृष्ठभूमि पूर्णतः तर्कसंगत है। कार्य-कारण सिद्धान्त पर आधारित होने से हम उसे कर्मविज्ञान भी कह सकते हैं। 13 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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