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________________ हैं-राग, द्वेष, मोह और प्रवृत्ति। तत्त्वज्ञान से इनका अभाव हो जाता है। वैशेषिक दर्शन में पांच कर्म स्वीकृत हैं-उत्क्षेपण, अपक्षेपण,आकुंचन, प्रसारण और गमन। कर्म के अन्य प्रकार से दो भेद होते हैं-सत्प्रत्यय तथा असत्प्रत्यय। प्रत्ययजन्य कर्म सत्प्रत्यय कहा जाता है, और अप्रयत्लजन्य कर्म असत्प्रत्यय कहा गया है। सांख्य-योग दर्शनः योग-सूत्र के व्याख्याकारों ने योगी और अयोगी के भेद से कर्म का विभाजन किया है। पुण्य या शुभ कर्म शुक्ल और पाप या अशुभ कर्म कृष्ण कहलाता है। योगी के कर्म अशुक्ल-अकृष्ण होते हैं। उनसे योगी को संसार का बन्धन नहीं होता। . अयोगी के कर्म तीन हैं-शुक्ल, कृष्ण एवं शुक्ल-कृष्ण। अतः वे बद्ध जीव कहे जाते हैं। कर्मों का मूल कारण संक्लेश है। कर्मों से क्लेश एवं क्लेशों से कर्म उत्पन्न होते हैं। कर्म, वासना, आशय एवं संस्कार ये शब्द पर्यायवाचक हैं, सबका एक ही वाच्य है। .. सांख्य दर्शन भी भारत का प्राचीन दर्शन रहा है। इसमें पच्चीस तत्त्वों की मान्यता रही है, लेकिन मुख्य रूप में दो ही तत्त्व हैं-पुरुष और प्रकृति। पुरुष है, चेतन। प्रकृति है, जड़। दोनों का अनादि काल से संयोग है। यह संयोग ही सांख्य में संसार कहा गया है। भेदविज्ञान से प्रकृति पुरुष का वियोग हो जाता है। यही है, अपवर्ग अथवा मोक्ष। सांख्य दर्शन ज्ञानप्रधान दर्शन है। पुरुष भोक्ता है। प्रकृति कर्ता है। पुरुष निष्क्रिय तथा निर्लेप है।बन्धन प्रकृति को होता है। पुरुष को न बन्धन है, और न मोक्ष है। जब बन्धन ही नहीं, तो मोक्ष किसका? सांख्य दर्शन में कर्म नहीं, उस के स्थान पर प्रकृति को माना गया है। क्रिया प्रकृति में मानी है, पुरुष तो कूटस्थ-नित्य है। मीमांसा दर्शनः ___ मीमांसा दर्शन का प्रधान विषय है-यज्ञ, होम तथा वेद विहित अनुष्ठान कर्म। उसके अनुसार वेद विहित कर्म, धर्म है। वेद निषिद्ध कम,अधर्म है। वेद विहित कर्म चार प्रकार का माना गया है-नित्य, नैमित्तिक, काम्य और निषिद्ध कर्म। मीमांसक विद्वानों का मत है, कि धर्म का परिपालन अवश्य ही करना चाहिए, क्योंकि धर्म करने वाले को फल की प्राप्ति अवश्य होती है। वह धर्म क्या है? उनका उत्तर है, कि यज्ञ कर्म और होम कर्म। कर्म क्रिया रूप होता है, क्रिया कुछ क्षणों में नष्ट हो जाती है। इस लोक में कृत कर्म से एक अदृष्ट शक्ति प्रकट होती है। इस शक्ति को मीमांसा-शास्त्र में अपूर्व कहा गया है। जन्मान्तर में यही कर्म का फल प्रदान करता .. 12 .. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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