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________________ ६९० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) फँस जाते हैं। ये दोनों प्रकार के जीव तत्काल और प्रचुर लाभ दीखने वाले प्रलोभन भरे जाल में फँसने को आतुर हो जाते हैं। ऐसे अदूरदर्शी जीव दुष्परिणामों की बात सोच ही नहीं पाते।' इसी प्रकार आस्रव के आसान और सद्यः फलदाता दिखाई देने वाले मार्ग पर अदूरदर्शी और अविवेकी मानव झटपट चलने को आतुर हो उठते हैं। वे अदूरदर्शी मानव उसके दुष्परिणामों और भावी दुःखज्वाला को भी सोच नहीं पाते । चाशनी को देखकर टूट पड़ने वाली मक्खी अपने भावी विनाश और दुर्गति को कहाँ सोचती है ? इसी प्रकार सांसारिक विषयसुखों की चाशनी के उपभोग की आतुरता में अदूरदर्शी मानव भी झटपट आस्रव का - कर्मों के आगमन और बन्ध का मार्ग अपनाकर अपने तन-मन की . स्वस्थता को, अपनी वाणी की अमोघ शक्ति को, अपने आत्मबल एवं मानसिक-बौद्धिक शक्तियों को, अपने जीवन के पावनतम धर्म और श्रेष्ठनीति को (पवित्र चारित्र) को नष्ट कर डालते हैं। अपने उज्ज्वल भविष्य की संभावनाओं को दूर ठेल देते हैं। उन अदूरदर्शी मानवों को दिखाई ही नहीं पड़ता कि सदुद्देश्यपूर्वक श्रेष्ठता की दिशा में संवर का मार्ग अपनाकर चलने वाले लोग भले ही प्रारम्भ में कुछ कष्ट, कठिनाइयाँ और असुविधा उठाते दीखते हैं, किन्तु अन्ततः अभ्यास से वे एक दिन आध्यात्मिक उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर जा पहुँचते हैं। दूरदर्शिता का पथ अपनाने वाले अपना वर्तमान और भविष्य उज्ज्वल बनाते हैं लोक व्यवहार में भी हम देखते हैं कि विद्यार्थी, कृषक, व्यापारी, श्रमिक, शिल्पी एवं कलाकार आदि प्रारम्भ में दूरदर्शी बनकर अपने लक्ष्य की दिशा में अनेकों कष्ट-कठिनाइयाँ एवं असुविधाएँ उठाते हैं, किन्तु अन्त में उनका भविष्य उज्ज्वल बनता है, वे अपने परिश्रम को सफल बनाते हैं। यह तथ्य कर्मविज्ञान की दृष्टि से नहीं, किन्तु लोकव्यवहार में अपनाई जाने वाली दूरदर्शिता से प्रेरणा लेने की दृष्टि से प्रस्तुत किया गया है। आध्यात्मिक क्षेत्र में भी यदि इसी प्रकार दूरदर्शी बनकर आस्रव के बदले संवर का पथ अपनाया जाए तो दूरदर्शी नमि राजर्षि की तरह वे जगद्वन्द्य, लोकोत्तम और उज्ज्वल भविष्य के धनी बनते हैं। संवर पथ अपनाने वाले नमि राजर्षि की दूरदर्शिता की परीक्षा और प्रशंसा इसके (संवर पथ के) अपनाने से उन दूरदर्शी जनों का केवल भविष्य ही उज्ज्वल नहीं बनता, इहलोक और परलोक दोनों में वे उत्तम सिद्ध होते हैं, और अपने किये हुए १. अखण्ड ज्योति, जनवरी १९७८, पृ. ५२ से २ . वही, पृ. ५२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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