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________________ आम्रव मार्ग संसारलक्ष्यी और संवरमार्ग मोक्षलक्ष्यी ६८९ इस संवर मार्ग में पहले कठिनाइयों को स्वेच्छा से स्वीकारना पड़ता है, परन्तु बाद में चिरस्थायी सुख-शान्ति की व्यवस्था एवं उपलब्धि होती है। यह मार्ग अनभ्यस्तदशा में पहले कठिन जान पड़ता है, किन्तु अभ्यास होने के बाद यही मार्ग सरलतम और स्वच्छ हो जाता है। व्यक्ति इस मार्ग पर बाद में निःशंक होकर दौड़ लगा सकता है। . इसके विपरीत दूसरे-आप्नवमार्ग में पहले ही सुख-सुविधा, इन्द्रियसुख-लिप्सा, मनचाहा पदार्थ पाने अथवा स्वार्थ सिद्ध करने की आकांक्षा की पहल की जाती है, जिसका परिणाम यह होता है कि मनुष्य कर्मों के आकर्षण, आगमन और बन्धन का रास्ता खोल देता है। जिससे वह बाद में अपने तन-मन-वचन से. असुविधा, सहिष्णुता, तितिक्षा और मनोनिग्रह आदि के कठिन मार्ग पर चल नहीं पाता, कठिनाई का मार्ग देखते ही घबरा जाता है। उसके तन-मन-वचन की शक्तियाँ कष्ट-कठिनाइयों को देखते ही पस्तहिम्मत हो जाती हैं। फलतः पतन के गड्ढे में गिरकर वह आध्यात्मिक विनाश के मुख में चला जाता है। वह जन्म-जरा-मरण-व्याधिमय दुःखसंकुल संसार में ही रचा-पचा रहता है। यह है-प्रेय के मार्ग को अपनाने का फल। जबकि श्रेयं का मार्ग अपनाने वाला व्यक्ति अपनी विवेक बुद्धि तथा निर्णायिका एवं स्थिर प्रज्ञा से स्थितात्मा होकर अपनी मानसिक वाचिक कायिक शक्तियों को बहिर्मुखी नहीं बनाकर, अन्तर्मुखी बना लेता है। वह उन्हें सुख-सुविधाओं के फिसलन वाले मार्ग से मोड़कर आत्मा की अनन्तचतुष्टयात्मक उपलब्धि और अक्षयनिधि की ओर लगाता है। श्रेय के श्रेयस्कर पथ को अपनाने के फलस्वरूप वह मोक्ष का अनन्त अक्षय और अव्याबाध आत्मिक सुख (आनन्द) प्राप्त करता है, तथा अनन्तज्ञान-दर्शन और असीम आत्मशक्ति (आत्मवीर्य) को भी उपलब्ध कर लेता है। अदूरदर्शिता और दूरदर्शिता का मार्ग अपनाने वाले ये प्राणी! - इसे ही वर्तमान युग की भाषा में अदूरदर्शिता का मार्ग कह सकते हैं। आसव का मार्ग अदूरदर्शिता का है, जिसमें भय, शंका, प्रलोभन, लिप्सा, आकांक्षा, आसक्ति, राग-द्वेष और कषाय का, असावधानता का जाल बिछा हुआ है। अदूरदर्शी और भ्रान्त मनुष्यं आसान समझ कर इस मार्ग को झटपट पकड़ लेता है; जबकि दूसरा मार्ग दूरदर्शिता का है जिसमें उत्थान के, राग-द्वेष, काम-क्रोधादि पर विजय पाने के, निर्भयता और निःशंकता के तथा कर्मों को क्षय करने के बिन्दु लगे हुए हैं। दूरदर्शी मानव इसी मार्ग को अपनाता है। पहले मार्ग का प्रारम्भ प्रलोभन, स्वार्थ और सस्ती एवं क्षणिक सुखप्राप्ति की लिप्सां से होता है, जिसका अन्त आता है-पतन, विनाश और पश्चात्ताप में। कांटे में लगी हुई आटे की गोली के उपभोग की प्राप्ति की आशा में मछली अदूरदर्शी बनकर अपना गला फंसा लेती है। अन्नकणों के लोभ में अदूरदर्शी पक्षी बहेलिये के बिछाये हुए जाल में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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