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________________ पुण्य : कब और कहाँ तक उपादेय एवं हेय ? ६७१ असमर्थ व्यक्ति की अपेक्षा स्वदार सन्तोषी व्यक्ति को शीलवान् कहकर उसकी स्तुति की जाती है एवं परस्त्रीगमन का त्यागी होने से उसे आदरणीय मानते हैं। जैसे सुदर्शन सेठ परस्त्रीगमन से विरत था, और स्वदार सन्तोषव्रती होने से शीलवान् और आदरास्पद समझा जाता था। इस उदाहरण के प्रकाश में शुद्धोपयोग पूर्ण ब्रह्मचर्य के समान परम उपादेय है। शुभोपयोग (पुण्य) स्वदारसन्तोषव्रत के समान कथंचित् उपादेय है, एवं अशुभोपयोग परस्त्रीगमनरूप महापाप के समान सर्वथा हेय है। स्वदार-सन्तोषी और परस्त्रीगामी, इन दोनों में स्त्री-सेवनरूपता का सद्भाव होते हुए भी स्वदार-सन्तोषी गृहस्थ की अवस्था उपादेय है, मगर परस्त्री-सेवन का कार्य तो सर्वथा निषिद्ध है। यद्यपि शुद्धोपयोगता की अपेक्षा शुभ और अशुभ उपयोग समान हैं, दोनों में अशुद्धोपयोगता है, किन्तु उनमें महान् अन्तर भी है। इस दृष्टि से स्वदार-सन्तोषी सद्गृहस्थ के लिए शुभोपयोग उपादेय माना गया है और अशुभपयोग सर्वथा । जो दोनों को एक सरीखे मानकर अशुभ प्रवृत्ति से विमुख नहीं होता, वह भवभ्रमण एवं दुर्गति का अपार कष्ट पाता है। कुशील परिणाम वाला रावण अशुभोपयोग के कारण नरकगामी बना, जबकि सीता शीलवती ( स्वपतिसन्तोषव्रती) होने से स्वर्गगामिनी हुई। शुभोपयोग और अशुभोपयोग को एक समान मानने वाला चतुर, विवेकी एवं सम्यग्दृष्टि नहीं माना जाता। अध्यात्मशास्त्र में निश्चयनय को प्रधानता दी गई है। इस अपेक्षा से शुद्धोपयोग को आदर्श मानकर अन्य उभय उपयोगों को हेय कहा गया है। किन्तु निर्विकल्प समाधि में असमर्थ व्यक्ति की अपेक्षा से शुभोपयोग और अशुभोपयोग में भिन्नता माननी होगी।' एकान्त निश्चयवादी शुभोपयोग को भी छोड़कर अशुभोपयोग के दूतों के हाथ में वर्तमान में यह देखा जाता है, कई एकान्त निश्चयवादी व्यक्ति अध्यात्मशास्त्र का पल्लवग्राही पाण्डित्य प्राप्त करके अर्हद्-भक्ति, दान, शील, तप, स्वाध्याय तथा व्रतनियमादि का आचरण आदि सत्कार्यों अथवा सत्प्रवृत्तियों को शुभोपयोगरूप कह कर उसे एकान्त रूप से त्याज्य प्रतिपादित करते हैं, तथा शुभोपयोग रूप पुण्य के प्रति अनर्गल एवं अमर्यादित आक्षेपपूर्ण शब्दों का प्रयोग करते हैं। इतना ही नहीं, वे स्वयं एकान्त शुद्धोपयोग की भूमिका पर आरूढ़ नहीं हैं, और शुभोपयोग को सर्वथा त्याज्य कहकर स्वयं को, तथा इस प्रकार के सिद्धान्त एवं भूमिका की प्रतिकूल बातों से बहकाकर दूसरों को भी चारों विकथाओं, हिंसादि पंच पापों, सप्त कुव्यसनों आदि • अशुभपयोग के महान् दूतों के हाथों में सौंप देते हैं। १. महाबंध भा. १ ( प्रस्तावना) (पं. सुमेरुचन्द्र दिवाकर) से पृ. ६१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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