SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६७० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) ... अन्तर द्वारा शुभयोग का संवर होता है।” अशुभोपयोग तो सर्वथा हेय, पुनःपुनः पापबन्धकारक तथा संसार में सतत भ्रमण कराने वाला है। ‘प्रवचनसार' में कहा गया है'अशुभयोग-परिणति के द्वारा आत्मा दीन-दुःखी या नारक, तिर्यञ्च तथा मनुष्य बनकर हजारों दुःखों से पीड़ित होता हुआ सतत् संसार में भ्रमण करता है। तथा अशुभयोग के कारण संचित पापकर्मोदयवश जीव इष्टवियोग, अनिष्ट संयोग, पीड़ा का चिन्तन आदि मलिन सामग्री को पाकर संक्लेश भाव द्वारा पुनः पुनः पापकर्म का आस्रव और बन्ध करता रहता है। जिसका राग प्रशस्त है, अन्तर में अनुकम्पा की वृत्ति है और मन में कलुषभाव नहीं है, उस जीव के पुण्य का आस्रव होता है। शुभ उपयोग (पुण्य) और अशुभोपयोग (पाप) में अन्तर मोक्षमार्ग प्रकाश में कहा है-शुभ और अशुभ में अन्तर की दृष्टि से विचार करते हैं तो सैद्धान्तिक दृष्टि से शुभभावों (पुण्यों) में कषाय मन्द होते हैं, इसलिए बन्ध अल्प होता है; जबकि अशुभभावों (पापों) में कषाय तीव्र होते हैं, इसलिए बन्ध अत्यधिक होता है। इस प्रकार विचार करने पर कर्मविज्ञान में अशुभ (पाप) की अपेक्षा शुभ (पुण्य) को अच्छा कहा गया है। संसार भ्रमण की दृष्टि से समान : किन्तु आचारदृष्टि से दोनों में दिन-रात का अन्तर ___ यद्यपि संसार परिभ्रमण के कारण की अपेक्षा से शुभोपयोग तथा अशुभोपयोग और उनके द्वारा प्राप्त पुण्य तथा पाप समान हैं, किन्तु दूसरी अपेक्षा से पुण्य और पाप में महान् अन्तर है। जैसे-ब्रह्मचर्यव्रत की अपेक्षा विचार करें तो स्पष्ट प्रतीत होगा कि स्वदार-सन्तोष और परस्त्रीगमन, दोनों में स्त्री-सेवनरूपता का सद्भाव है, स्त्रीसम्पर्क का त्याग नहीं है, किन्तु इन दोनों के फलों को देखते हुए दोनों को भिन्न माना जाता है। ___जैसे कि शुद्धोपयोग की दृष्टि से विधान है-सत्पुरुष को पूर्ण ब्रह्मचर्य महाव्रत ग्रहण करना चाहिए। किन्तु जिसकी आत्मा अभी पूर्ण ब्रह्मचर्य-पालन में असमर्थ है, उसके लिए स्वदार-सन्तोषव्रती बनने का विधान है। किन्तु अगर वह इस मर्यादा को छोड़कर परस्त्रीसेवन में प्रवृत्ति करता है तो सत्पुरुष उसे महापापी कहते हैं। यद्यपि परस्त्रीगामी और स्वदारसन्तोषी दोनों ही पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत का पालन नहीं करते तथा पूर्ण ब्रह्मचर्य की अपेक्षा स्त्रीमात्र का सेवन हेय है, किन्तु पूर्णब्रह्मचर्य पालन में १. प्रवचनसार १/१२ : "असुहोदयेण आदा कुणरो तिरियो भवीय गैरइयो। दुक्खसहस्सेहिं सदा अमिंधुदो भमिद अच्चंत॥" २. रागो जस्स पसत्यो, अणुकंपाससिदो य परिणामो। चित्तम्हि णत्यि कलुस, पुण्णं जीवस्स आसवदि॥ ३. मोक्षमार्ग-प्रकाश ७/३०१/१४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy