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________________ पुण्य और पाप : आनव के रूप में ६५३ (टी.वी., रेडियो, संगीत, फिल्म- दर्शन आदि) में उनका जी रमता रहता है। इनके • साधनों को एकत्रित करने एवं जुटाने में वे अहर्निश लगे रहते हैं। पापाम्नवपरायण ः पुण्यफल की भ्रान्ति के शिकार प्रतिफल यह होता है कि उन्हें उपभोग सामग्री एवं सुख-सुविधाएँ प्रचुरमात्रा में तत्काल मिल जाती हैं। उसका नतीजा यह होता है कि फिर वे इन्हीं के लिए सोचते और करते रहते हैं। ऐसा सोचने और करते रहने में ही वे पुण्यफल की प्राप्ति समझते हैं। इस पुण्यफल की तथाकथित भ्रान्ति के फलस्वरूप वे पापास्रवों को छोड़ नहीं पाते और न ही नया पुण्य उपार्जित कर पाते हैं। वे ऐसा सोचते रहते हैं-साधनों के संग्रह से मिलने वाली अमीरी ही तो पुण्यवानी की निशानी है, इसी से समाज में बड़प्पन, प्रशंसा, प्रतिष्ठा और वाहवाही मिलती है, यश-कीर्ति मिलती है। अन्य व्यक्ति उनकी सराहना ही नहीं खुशामद, गुलामी और चापलूसी भी करते हैं। धन का प्रलोभन देकर किसी को भी आकर्षित किया जा सकता है, उसका उचित-अनुचित सहयोग खरीदा जा सकता है। यहाँ तक कि धर्मात्मा और भगवद्भक्त का टाइटिल भी धन के बल पर मिल सकता है। पापाचरणपूर्वक धन का संग्रह करने से और थोड़ा-सा निहित स्वार्थी लोगों को दे देने से ही सास काम बन जाता है। सभी उसके व्यवहार से चकित, भ्रान्त और प्रभावित हो जाते हैं। सारा कुटुम्ब भी उनके उस पापानवयुक्त आचरण एवं साधन-सुविधा दे देने के व्यवहार से प्रसन्न, सन्तुष्ट और अनुकूल रहता है। तब फिर पदार्थत्याग की वृत्ति - . प्रवृत्ति, तथा पुण्योपार्जन से होने वाले परोक्ष लाभ की आशा रखना व्यर्थ है, प्रत्यक्ष लाभ वाली इस प्रवृत्ति और आशा को छोड़ना मूर्खता है। समाज और कुटुम्बीजन भी तो यही • अपेक्षा रखते हैं, मुझसे पापाम्नवपरायण असुरवर्ग का विकृत चिन्तन पापाम्नव-परायण असुरवर्ग का लगभग इसी प्रकार का चिन्तन रहता है, वे तात्कालिक और प्रत्यक्ष दृश्यमान लाभ को ही महत्व देते हैं। वे भविष्य को उज्ज्वल, सुखशान्तिमय और विकास का चिन्तन यानी पुण्य प्राप्ति के अवसरों का चिन्तन करना निरर्थक समझते हैं। प्रत्यक्ष की उपेक्षा करके परोक्ष की अपेक्षा क्यों की जाए ? इस प्रकार के कुतर्क जाल में फंसकर अधिकांश प्राणी लोभ आदि कषायों और मोह से ग्रस्त जीवन जीते हैं। उनकी गतिविधियों पर तुच्छ स्वार्थ, अहंकार, वासना और तृष्णा की तमिलना छाई रहती है। १. देखें, दशवैकालिक अ. २, गा. २, तथा गीता अ. ३ श्लो. ६ २. अखण्डज्योति जनवरी १९७८ से साभार भावांश पृ. ५४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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