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________________ ६५२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) चल रहे हैं। साथी स्वजनों का परामर्श और प्रोत्साहन तो उसी के लिए है। फिर भावी सुखके लिए वर्तमान सुखों को तिलांजलि देकर दुःख में पड़े रहना, यह कौन-सा पुण्य है? परलोक किसने देखा है ? पता नहीं, इस त्याग का, दान का या परोपकार का फल इस लोक में या परलोक में मिलेगा या नहीं ? सभी लोग तो प्रत्यक्ष सुख प्राप्ति के तात्कालिक लाभ के मार्ग पर चल रहे हैं, फिर मुझे इस (द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद या प्रत्यक्षलाभवाद के) मार्ग पर क्यों नहीं चलना चाहिए ?” इस प्रकार पुण्य और पाप के अन्तर्द्वन्द्व के शिकार लोग पापानव-परायण होकर जीवनयापन करते रहते हैं। ऐसे लोग आरामतलबी एवं सुख-सुविधाभोगी बनकर, निपट स्वार्थी एवं पापचारी बन जाते हैं। पापश्रमण : पुण्य से दूर, पापास्रव के निकट उत्तराध्ययनसूत्र में ऐसे श्रमणों - स्व-पर- कल्याण की साधना के उद्देश्य से बने हुए साधुओं को पापश्रमण कहा गया है, जो सुरक्षित निवासस्थान ( उपाश्रय आदि) एवं खान-पान की प्रचुर सुविधा मिल जाने पर, केवल तत्त्वज्ञान बघारता रहता है और यथेच्छ खा-पीकर सुख से सो जाता है, आलसी बनकर पड़ा रहता है, स्वधर्म-कर्तव्य की प्रेरणा करने वाले आचार्य या उपाध्याय आदि की निन्दा - भर्त्सना करता रहता है, ऐसा ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तपश्चरण में प्रमादी, अविनीत, अहंकारी, कलहकारी, मायावी, वाचाल, लुब्ध एवं कदाग्रही व्यक्ति साधु बन जाने पर भी साधुवेश में पापानव का उपार्जन करने वाला 'पापश्रमण' कहलाता है। वह कर्मक्षय की साधना से तो प्रायः दूर ही रहता है, शुभकर्मरूप पुण्यास्रव के उपार्जन की साधना भी नहीं करता । पापानव-परायण लोगों की वृत्ति-प्रवृत्तियाँ ऐसे श्रमणों के जीवन में भी जब प्रमादवश पापाचरण घुस जाता है, तब उनसे नीची श्रेणी के गृहस्थों या गृहस्थ साधकों के जीवन में पापास्रवों का प्रविष्ट होना कौन-सी बड़ी बात है ? ऐसे पापानव-परायण लोगों की इन्द्रियाँ विषय-वासनाओं, मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए लालायित रहती हैं। उन्हें उपभोग के जितने साधन एवं अवसर मिलते हैं, उतनी ही बार वे प्रसन्न होती हैं। बल्कि बाहर से इन्द्रियविषयों तथा सुखसाधनों का त्याग कर देने पर भी अन्तर्मन में उनको पाने और भोगने की लालसा बलवती हो उठती है। फलतः उनका तन-मन भी आराम, सुख-सुविधा और सुख-साधनों के उपभोग की इच्छा करता रहता है। आमोद-प्रमोद, हास्य-विनोद एवं मनोरंजन के आधुनिक साधनों १. (क) वही, जनवरी १९७८ पृ. ५३/५४ (ख) तुलना करें - उत्तराध्ययन अ. ५गा. ५, ६, ७, ८, ९, १० २. उत्तराध्ययनसूत्र अ. १७ पापश्रमण गाथा २ से २० तक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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