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________________ ६४४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) जैनदर्शन में योगों की शुभाशुभता के आधारभूत तथ्य जैसे कि पाश्चात्य दर्शनों में क्रियासिद्धान्त में क्रिया की शुभाशुभता के आधारभूत कतिपय तथ्य बताये गए थे, वैसे ही जैनदर्शन में भी मन-वचन-काय के योग (क्रिया या प्रवृत्ति) की शुभाशुभता के लिए तत्त्वार्थसूत्र में भी कुछ तथ्य बताये गए हैंतीव्रभाव, मन्दभाव, ज्ञातभाव, अज्ञातभाव, वीर्य (शक्ति विशेष) और अधिकरण. ( शस्त्रादि) की भिन्नता ( अन्तर) से उसकी (कर्मानव तथा तत्पश्चात् कर्मबन्ध की ) विशेषता होती है। अव्रत, कषाय, इन्द्रिय व्यापार तथा क्रिया आदि पूर्वोक्त आनव (बन्धकारण) एक सरीखे होने पर भी परिणामों (भावों) की तीव्रता - मन्दता के कारण कर्मबन्ध भी पृथक्-पृथक् प्रकार का होता है। जैसे-एक ही दृश्य के दो दर्शकों में एक मंद आसक्तिवाला है, दूसरा तीव्र आसक्तिवाला है, तो दोनों का कर्मबन्ध भी मन्द- तीव्र होगा। इच्छापूर्वक प्रवृत्ति करना ज्ञातभाव है, अनिच्छापूर्वक कृत्य का हो जाना अज्ञातभाव है । ज्ञातभाव और अज्ञातभाव में बाह्य क्रिया समान होने पर भी कर्मबन्ध में अन्तर पड़ता है। जैसे-एक पापपरायण व्यक्ति नदी पार करता हुआ निःशंक होकर अनेक जलजन्तुओं को मार देता है, उसे तीव्र अशुभ कर्मबन्ध या पापकर्मानव होगा, जबकि एक ईर्यासमितिपूर्वक गमन करने वाले साधक से नदी पार करते समय अकस्मात् कोई जलजन्तु पैर से दबकर मर जाता है, तो उसे तीव्र अशुभकर्मबन्ध ही नहीं, बल्कि पापकर्म का बन्ध या पापानव भी उसे नहीं होगा । . वीर्य ( शक्तिविशेष) भी शुभ - अशुभ कर्मानव या कर्मबन्धं की विचित्रता का एक कारण है। जैसे-दान, सेवा आदि शुभकार्य एक व्यक्ति पूर्ण शक्तिभर करता है, जबकि दूसरा व्यक्ति हत्या, चोरी आदि अशुभ कार्य पूरी शक्ति से निःशंक होकर करता है तो पहले व्यक्ति को शुभकर्म का तीव्र आम्रव या बन्ध होगा, जबकि दूसरे व्यक्ति को अशुभ कर्म का तीव्र आनव या बन्ध होगा। फिर अधिकरण के भेद से भी शुभाशुभ कर्मानव में तथा कर्मबन्ध में अन्तर पड़ता है। एक डाक्टर है, वह तीव्र करुणा भाव से किसी रोगी का ऑपरेशन करते समय शस्त्र द्वारा फोड़े की चीर-फाड़ करता है, उसे तीव्र शुभकर्मानव या शुभ कर्मबन्ध होता है। जबकि एक हत्यारा आवेश में आकर किसी के पेट में छुरा भोंककर उसका प्राणान्त कर देता है, उसे तीव्र अशुभकर्मानव (पाप कर्म) या तीव्र पाप कर्मबन्ध होता है। बाह्य क्रिया समान होने पर भी जीव अधिकरण-संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ रूप में तीन प्रकार का योग ( मन-वचन-काय प्रयोग) के रूप में तीन प्रकार का, कृतकारित एवं अनुमत रूप में तीन प्रकार का और कषाय के रूप में चार प्रकार का है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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