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________________ पुण्य और पाप : आसव के रूप में ६३९ कहीं क्रिया की शुभाशुभ फलश्रुति के आधार पर तो कहीं भावों के साथ सामाजिक दृष्टि या लोक व्यवहार (द्रव्य) के आधार पर कर्म की शुभाशुभत्व या पुण्य-पापरूपता का निर्णय किया गया है। इस सम्बन्ध में हम विस्तृत वर्णन 'कर्म का शुभ और अशुभ रूप' शीर्षक (निबन्ध) में कर चुके हैं।' बौद्ध आचारदर्शन में पुण्यकर्म का निरूपण ___बौद्ध आचारदर्शन में पुण्य के दानात्मक स्वरूप की झांकी दी गई है। 'संयुत्तनिकाय' में कहा गया है कि अन्न, पान, वस्त्र, शय्या, आसन और चादर के दाता विद्वान् व्यक्ति के जीवन में पुण्य प्रवाह बहता रहता है। ___ 'अभिधम्मत्थसंगहो' में १५ प्रकार की वृत्ति-प्रवृत्तियों को कुशल चैतसिक (पुण्यकर्म) कहा गया है-(१) श्रद्धा, (२) अप्रमत्तता (स्मृति), (३) पापकर्म के प्रति लज्जा, (४) पापकर्म के प्रति भीरुता, (५) अलोभवृत्ति (त्याग), (६) अद्वेष (मैत्री), (७) समता, (८) मानसिक पवित्रता, (९) शारीरिक प्रसन्नता, (१०) मन का हलकापन, (११) शरीर का हलकापन, (१२) मन की मृदुता, (१३) शरीर की मृदुता, (१४) मन की सरलता, (१५) शरीर की ऋजुता आदि। कर्मों की शुभाशुभता का आधार राग की प्रशस्तता-अप्रशस्तता भी है जैनदर्शन ने यह भी बताया है कि कर्मों की शुभाशुभता का आधार राग की उपस्थिति या अनुपस्थिति नहीं, अपितु राग की प्रशस्तता-अप्रशस्तता है। जिस राग के साथ द्वेष की मात्रा जितनी मन्द-मन्दतर होगी, वह राग उतना ही प्रशस्त होगा, इसके विपरीत जिस राग के साथ द्वेष की मात्रा जितनी तीव्र-तीव्रतर होगी, उतना ही वह राग अप्रशस्त होगा। - प्रशस्तराग या द्वेष की अत्यल्पता को ही अन्य धर्मों और दर्शनों में 'प्रेम' कहा गया है। प्रशस्त प्रेम के कारण ही परार्थ प्रवृत्ति या परोपकारवृत्ति का उदय होता है। वही शुभकर्म (पुण्य) के उपार्जन का कारण होता है। उसी से लोकमंगलकारी या समाजकल्याणकारी अन्नदानादि नवविध शुभ प्रवृत्तियों के रूप में पुण्य (शुभ) कर्म का सृजन होता है। १. देखें, तृतीय खण्ड में 'कर्म का शुभ और अशुभ रूप' शीर्षक निबन्ध में विस्तृत विवेचन, - . पृ. ५२९ २. (क) संयुत्तनिकाय (ख) अभिधम्मत्थसंगहो, चैतसिक विभाग . (स) जैनकर्मसिद्धान्त : एक तुलनात्मक अध्ययन (डॉ. सागरमल जैन) । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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