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________________ ६३८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आस्रव और संवर (६) है। कठोर वचन, गाली, निन्दा चुगली, इत्यादि रूप में दूसरों के प्रति उपघातक वचन-प्रवृत्ति वाचिक अशुभासव है और इनसे निवृत्ति वाचिक शुभासव है। मिथ्याश्रुति, ईर्ष्या, मात्सर्य, षड्यंत्र इत्यादि रूप से मन की प्रवृत्ति मानसिक अशुभानव है और इनसे निवृत्ति मानसिक शुभासव है।' क्रिया के बाह्य स्वरूप और परिणाम (फल) को लेकर भी द्रव्य-भावपुण्य ___कर्ता के आशय के अतिरिक्त क्रिया के बाह्य इष्ट-अनिष्ट स्वरूप एवं क्रिया के शुभ-अशुभ बाह्य परिणाम (फल) को लेकर भी पुण्य और पाप का निर्णय किया गया है। जैसे-“पंचास्तिकाय" में भावपुण्य-द्रव्यपुण्य का लक्षण किया गया है-दान, पूजा, षट् आवश्यक आदि रूप जीव का शुभ परिणाम भावपुण्य है। इसी (पूर्वोक्त) भावपुण्य के निमित्त से उत्पन्न होने वाले सातावेदनीय आदि शुभ प्रकृति-रूप पुद्गल परमाणुओं का पिण्ड द्रव्य-पुण्य है। दूसरे शब्दों में-दानादि क्रियाओं से उपार्जित किया जाने वाला शुभ . कर्म द्रव्यपुण्य है। इसी प्रकार पुण्य का निर्वचन ‘सर्वार्थसिद्धि' में किया गया है- जो आत्मा को पवित्र करता है, अथवा जिससे आत्मा पवित्र होता है, वह पुण्य है।" इसी का परिणाम (फल) के आधार पर लक्षण करते हुए ‘भगवती आराधना' में कहा गया है-जिससे अभीष्ट पदार्थों की प्राप्ति होती है, वह कर्म पुण्य कहलाता है। इसके विपरीत जिससे अनिष्ट पदार्थों की प्राप्ति होती हो, ऐसे कर्म को (तदनुरूप भावों को) पाप कहते हैं। जैनदर्शन में पुण्य-पाप कर्म के शुभाशुभत्व का निर्णय निष्कर्ष यह है कि जैनदर्शन पुण्य-पाप कर्म के शुभाशुभत्व का निर्णय मुख्यतया निश्चय दृष्टि से कर्ता के आशय (परिणाम या भाव) के आधार पर करता है, किन्तु व्यवहार दृष्टि से कहीं कर्म के अच्छे-बुरे, मंगल-अमंगल बाह्यरूप के आधार पर और १. तत्र कायिको हिंसाऽनृतस्तेयाऽब्रह्मादिषु प्रवृत्ति-निवृत्तिसंज्ञः। मानसो मिथ्याश्रुत्यमिधातेासूयादिषु मनसः प्रवृत्ति-निवृत्ति-संज्ञः। वाचिकः परुषाक्रोश-पिशुन-परोपघातादिषु वचःसु-प्रवृत्ति-निवृत्ति संज्ञः।" . ___ -राजवार्तिक १/७/१४/३९ २. (क) दान-पूजा-षडावश्यकादिरूपो जीवस्य शुभ परिणामो भावपुण्यम्। भावपुण्य-निमित्तेनोत्पन्नः - सवेद्यादि-शुभप्रकृतिरूपः पुद्गल-परमाणु-पिण्डो द्रव्यपुण्यम्॥" -पंचास्तिकाय ता. वृत्ति १०८/१७२/८ ३. (क) पुनात्यात्मानं पूयतेऽनेनेति वा पुण्यम्। ___ -सर्वार्थसिद्धि ६/३/३२०/२, राजवार्तिक ६/३-४/५०७ (ख) 'पुण्यं' नाम अभिमतस्य प्रापकम्। पापं नाम अनभिमतस्य प्रापकम्।' -भगवती आराधना (वि.) ३८/१३४/२०-२१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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