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६३० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६)
क्रमशः होता है। वैसे भी देखा जाए तो वाणी और मन, ये दोनों इन्द्रियों तथा अंगोपांगों की तरह काया के ही अंगभूत हैं। इसलिए काययोग-आनव से सावधान रहना चाहिए।" अध्यवसाय स्थान असंख्येय, कर्मास्रवरूप योग अनन्त क्यों?
राजवार्तिक में एक शंका उठाई गई है - जीवों के अध्यवसाय-स्थान असंख्यात लोकप्रमाण हैं। ऐसी स्थिति में ये त्रिविध योग अनन्त प्रकार के कैसे हो सकते हैं ?
इसका समाधान किया गया है कि अनन्तानन्त पुद्गल प्रदेश रूप से बंधे हुए ज्ञानावरण तथा वीर्यान्तराय के देशघाती और सर्वघाती स्पर्धकों के क्षयोपशम-भेद से. अनन्तानन्त प्रदेश वाले कर्मों के ग्रहण का कारण होने से तथा संसार के अनन्तानन्त जीवों में से प्रत्येक जीव के अनन्त कोटि के शुभाशुभ कर्म होने की अपेक्षा से, ये तीनों योग अनन्त प्रकार के हो सकते हैं।
इस तथ्य -सत्य को ध्यान में रखकर कर्मों के आगमन (आनव) से बचने के लिए सर्वप्रथम इन तीनों योगों के निरोध करने का पुरुषार्थ करना चाहिए।
१. (क) महावीर की साधना का रहस्य पृ. ४८ (ख) जैन योग पृ. ३१
२. राजवार्तिक ६/३/२/५०७
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