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________________ योग-आम्रव : स्वरूप, प्रकार और कार्य ६२९ समाधान-यद्यपि कायक्लेश में कायिक प्रवृत्ति (क्रिया) होती है, किन्तु उसके पीछे रागद्वेष या कषायभाव न होने से वे शुभ या अशुभ काययोग आसव की कोटि में नहीं आते। वस्तुतः मोक्षमार्ग से च्युत न होने और कर्मक्षय (निर्जरा) के लिए परीषह और उपसर्ग आदि को सहने की सामर्थ्य वृद्धि के लिए ग्रीष्मकाल में आतापना, शीतकाल में वस्त्रविहीनता (अपावृतता), वर्षाकाल में प्रतिसंलीनता, दंश-मशक आदि के काटने पर शरीर को न खुजलाना, विविध प्रतिमाधारण, वृक्षमूल में निवास, निरावरणशयन तथा कायोत्सर्ग में स्थिरता, उत्कुटुकासन आदि सात प्रकार के स्थानांगोक्त कायक्लेश तप स्वेच्छा से अंगीकार किये जाते हैं, इसलिए यह काययोगरूप कर्मानव का कारण नहीं काययोग ही एकमात्र योग : क्यों और कैसे? वस्तुतः योग एक ही है, अर्थात्-समस्त प्रवृत्तियों का सूत्रधार एक ही हैकाययोग। मन और वाणी ये दोनों अपने आप में पंगु हैं। मन अपने-आप चल नहीं सकता, न ही वाणी स्वयं चल सकती है। मन और वचन ये दोनों काया के द्वारा प्रेरित हैं, संचालित हैं। स्थूल शरीर ही पुद्गलों को ग्रहण एवं आकर्षित करता है। मन के पुद्गलों को भी स्थूल शरीर ग्रहण करता है, वचन के पुद्गलों को भी वही ग्रहण करता है। स्थूल शरीर पुद्गलों को ग्रहण करता है, तभी मन संचालित होता है, और तभी वाणी मुखरित होती है। द्रव्य आसव का लक्षण भी यही है-कर्मपरमाणुओं को ग्रहण करने और आकर्षित करने की क्रिया। (कर्म-) पुद्गल परमाणुओं का आकर्षण या ग्रहण काययोग (शारीरिक क्रिया या प्रवृत्ति) से होता है। बाह्य पुद्गलों को आकर्षित करने वाला घटक काययोग आसव है। समस्त कर्मपरमाणु आकर्षित होते हैं-काययोग के द्वारा। जैसेजलाशय में नाले से पानी आता है, वैसे ही काययोग रूपी नाले के द्वारा कर्म के परमाणु भीतर आकर आत्मप्रदेशों के साथ सम्बद्ध होते हैं, जैसे-गीले कपड़े पर हवा द्वारा उड़ाकर लाये हुए रजकण चिपक जाते हैं, वैसे ही रागद्वेष से स्निग्ध या आर्द्र बने हुए जीव पर काययोग द्वारा लाये हुए कर्मपरमाणु चिपक जाते हैं। • अतःकर्मपरमाणुओं को लाने वाला मूल में काययोग ही है। प्रवृत्ति का मूल स्रोतएक ही है-काया। योगों की संख्या तीन कहना सापेक्ष कथन है। काया के द्वारा ही सारे बाह्य पुद्गलों का ग्रहण एवं आकर्षण होता है। इसी दृष्टि से भगवान् ने सर्वप्रथम काया का संवर करने का निर्देश किया है। वाणी और मन का संवर कायसंवर के पश्चात् ही १. (क) स्थानांग स्थान ७ में सप्तविधकायक्लेश, सू. ४९, (आगम प्रकाशन समिति ब्यावर) __ (ख) मूलाचार (मू.) गा. ३५६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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