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________________ योग-आसव : स्वरूप, प्रकार और कार्य ६२५ इसी प्रकार ध्यान में लीन अपूर्वकरण नामक गुणस्थानवी जीवों में वचनबल का सद्भाव भले ही हो, किन्तु ध्यानावस्था में उनके वचनयोग या काययोग का सद्भाव भी सम्भव है, क्योंकि अन्तर्जल्प के लिए प्रयत्लरूप वचनयोग और कायगत सूक्ष्म प्रयल (परिस्पन्दन) रूप काययोग का सद्भाव उनमें पाया ही जाता है। इसी प्रकार वैक्रियक समुद्घातगत जीवों में मनोयोग तथा वचनयोग का परिवर्तन एवं मारणान्तिक समुद्घातगत (मूर्छितावस्था) जीवों में भी बाधक कारणों के अभाव में गाढ़निद्रा में सोये हुए जीवों के समान अव्यक्त मनोयोग और अव्यक्त वचनयोग सम्भव है।' काययोग : स्वरूप और लक्षण ___ वचनयोग के पश्चात् योग-आम्रव का तीसरा भेद है-काययोग। काययोग का कर्मसैद्धान्तिक दृष्टि से विशद लक्षण सर्वार्थसिद्धि में इस प्रकार किया गया है-“वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम होने पर औदारिक आदि सात प्रकार की काय-वर्गणाओं में से किसी एक प्रकार की वर्गणाओं के आलम्बन से होने वाला आत्मप्रदेश परिस्पन्द काययोग कहलाता है।" तत्त्वार्थभाष्य सिद्धसेनीयावृत्ति में इसका विशद लक्षण इस प्रकार दिया गया हैकाय का अर्थ शरीर है, जो कि आत्मा का निवास रूप पुद्गल द्रव्यघटित है। जैसे-वृद्ध अथवा दुर्बल व्यक्ति के लिए लाठी मार्ग में चलने में अवलम्बनरूप उपग्राहक होता है, उसी प्रकार जीव को गमनागमनादि क्रियाएँ तथा विषयों में सचेष्ट प्रयल करने में वह जीव के लिए अवलम्बनरूप उपग्राहक होता है। उस (काय) के योग से जीव का वीर्य परिणाम अर्थात् शक्ति या सामर्थ्य काययोग है। धवला में इसका व्यापक दृष्टि से लक्षण किया गया है-सात प्रकार के कायों में जो अन्वयरूप से रहता है, उसे सामान्य काय कहते हैं। उस काय से उत्पन्न हुए वीर्य के द्वारा आत्मप्रदेश परिस्पन्द लक्षण योग होता है, उसे काययोग कहते हैं। - इसी ग्रन्थ में दूसरा लक्षण इस प्रकार किया गया है-चतुर्विध शरीरों (औदारिक, वैक्रिय, तैजस एवं कार्मण शरीर) के अवलम्बन से जीव (आत्म) प्रदेशों का जो संकोच-विकोच होता है, वह काययोग है। तीसरा एक और लक्षण चिकित्साशास्त्र (शरीरशास्त्र) की दृष्टि से वहाँ किया (ख) वही १/१,१,५५/२८९ (ग) वही, २/१,१,४३४ १. (क) वही, २,१,१,४३४ (ख) वही, ४/१,३,२९/१०२ २. तत्त्वार्थ भाष्य सिद्धसेनीया वृत्ति ६/१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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