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________________ ६२४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) फिर भी यह शंका रह जाती है कि विकलेन्द्रिय जीवों में मन के बिना ज्ञान की उत्पत्ति कैसे होती है ? समाधान यह है कि मन ज्ञान की उत्पत्ति होती है, ऐसा एकान्त नियम नहीं है। दूसरी इन्द्रियों से भी ज्ञान की उत्पत्ति होती है। अमनस्क जीवों में जो केवलज्ञानी हैं, उनके ज्ञान की उत्पत्ति मनोयोग से नहीं होती, किन्तु समनस्क जीवों को जो क्षायोपशमिक ज्ञान होता है, वह मनोयोग से होता है। वस्तुतः विकलेन्द्रिय जीवों के वचन अनध्यवसायरूप ज्ञान के कारण होते हैं, इसलिए उन्हें अनुभयरूप वचन कहा गया है। अनध्यवसाय से यहाँ वक्ता के अभिप्राय विषयक अध्यवसाय का अभाव विवक्षित है, ध्वनिविषयक अध्यवसाय (निश्चय) का अभाव नहीं । वह तो उनमें पाया जाता है।' उपशमक और क्षपक जीवों में असत्य और उभय मनोयोग तथा वचनयोग सम्भव है मनोयोग के सम्बन्ध में एक शंका और है। वह यह है कि ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती उपशमक तथा बारहवें गुणस्थानवर्ती क्षपक (क्षीणमोह) महामानवों की कषाय क्षीण हो गई हैं, उनमें सत्यमनोयोग तथा अनुभयमनोयोग भले ही रहे, किन्तु असत्य और उभय मनोयोग तथा असत्य वचनयोग कैसे रह सकता है ? क्योंकि इन दोनों में रहने वाला अप्रमाद असत्य और उभय मन के कारणभूत प्रमाद का विरोधी है। इसका समाधान करते हुए धवला में कहा गया है कि ज्ञानावरण कर्म से ये दोनों युक्त होते हैं, इसलिए इनमें विपर्यय और अनध्यवसायरूप अज्ञान के कारणभूत मन का सद्भाव मानने में कोई विरोध नहीं आता । परन्तु इनके सम्बन्ध से उपशमक और क्षपक मानव प्रमत्त नहीं माने जा सकते, क्योंकि प्रमाद मोह की पर्याय है, जिसे उन्होंने उपशान्त व क्षीण कर दिया है। क्षीण कषाय जीवों के भी वचन असत्य हो सकते हैं, क्योंकि असत्यवचन तथा सत्यामृषावचन का कारण अज्ञान बारहवें गुणस्थान तक पाया जाता है। इसलिए असत्य वचनयोग और उभयवचन योग बारहवें गुणस्थानवर्ती जीवों तक में सम्भव है। निष्कषाय जीवों तथा ध्यानलीन अपूर्वकरण गुणस्थानी में भी वचन - काय - योग संभव एक शंका और है- वचनगुप्ति के पूर्णतया पालक कषायरहित जीवों के वचनयोगरूप आम्रव कैसे सम्भव है ? इसका समाधान किया गया है कि कषायरहित जीवों में भी अन्तर्जल्प के पाये जाने में कोई विरोध नहीं है। 9. धवला १/१,१,५३/२८७ २. (क) धवला १/१,१,५१/२८५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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