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योग-आम्रव : स्वरूप, प्रकार और कार्य ६२१
मनोयोग के दो भेद शुभ-अशुभ : स्वरूप और लक्षण ____ इसलिए आचार्यों ने उपयोग के आधार पर मनोयोग को दो भागों में विभक्त करके मनोयोग के दो भेद बताए हैं-शुभमनोयोग, अशुभ मनोयोग। उनका लक्षण भी उपयोग के आधार पर करते हुए कहा गया-जीवदया आदि शुभोपयोग हैं, और विषयकषायादि में प्रवृत्ति अशुभोपयोग हैं।
इसी आधार पर तत्त्वार्थ राजवार्तिक में दोनों का लक्षण इस प्रकार किया गया है-"प्राणी के प्राणों के वध (हिंसा), घात, ठगी आदि का चिन्तन, ईर्ष्या, असूया, द्वेषभाव, घृणा आदि अशुभ मनोयोग हैं और अर्हद्भक्ति, गुरुभक्ति, तप, त्याग की रुचि, विषयों से विरक्ति, श्रुतविनय आदि विचार करना शुभ मनोयोग है।'
निष्कर्ष यह है कि मन से प्राणिमात्र के हित का चिन्तन-मनन होता है, तब उसे हम सत्यमनोयोग कह सकते हैं। सद्भ्यो हितम् सत्यम्'-प्राणियों के लिए जो हितकर है, कल्याणक है, वह सत्य है। इसी प्रकार अनुभय मनोयोग आमंत्रण, आज्ञा आदि मानसिक भावों से निष्पन्न होता है, तथापि उसमें हितकर-अहितकर दोनों प्रकार का होने से तथा उभय मनोयोग में भी सत्य और असत्यमिश्रित होने से शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के मनोयोग होने सम्भव हैं। वचनयोग स्वरूप और लक्षण
मनोयोग के बाद वचनयोग-आस्रव है। वचनयोग यद्यपि मनोयोगपूर्वक ही होता है, किन्तु कई बार मनुष्य बिना विचारे या चिन्तनात्मक प्रयत्न किये बिना भी हठात् बोल देता है, अथवा जो द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के तिर्यञ्च अमनस्क प्राणी हैं, उनके व्यक्त भाषा नहीं होती, विचारपूर्वक चिन्तन-मनन भी नहीं कर सकते, उनके वचनयोग आसव विशेषतः होता है। . वचनयोग का सामान्य लक्षण यह है-“शरीर नाम कर्म के उदय से प्राप्त हुई वचन-वर्गणाओं का आलम्बन होने पर तथा वीर्यान्तराय और मत्यक्षरादि आवरण के क्षयोपशम से प्राप्त हुई आन्तरिक वचनलब्धि के मिलने पर वचनरूप पर्याय (परिणाम) के अभिमुख हुए, आत्मा का होने वाला प्रदेश परिस्पन्द वचनयोग कहलाता है।" वचनयोग का स्पष्टार्थ तथा सामान्य अर्थ
धवला में इसका संक्षिप्त अर्थ दिया गया है-वचन की उत्पत्ति के लिए जो प्रयत्न १. (क) राजवार्तिक ६/३/१,२
- (ख) सर्वार्थसिद्धि ६/३/३१९ २. (क) सर्वार्थसिद्धि ६/३/३१८
(ख) राजवार्तिक ६/१/१०/५०५
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