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६२० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६). . से प्रवृत्ति करने वाले मन को सत्य मन, उससे विपरीत मन को असत्य मन तथा सत्य और असत्य उभयरूप मन को उभयमन एवं जो संशय और अनध्यवसायरूप ज्ञान का कारण है, उसे अनुभयमन कहते हैं। इन चारों प्रकार के सत्यासत्यादि वचनों को उत्पन्न करने वाले मन से जनित योग यानी प्रयत्लविशेष को सत्यादि मनोयोग समझना चाहिए। मनोज्ञान और मनोयोग में अन्तर
कोई यह तर्क कर सकता है, सम्यग्दृष्टि या सम्यग्ज्ञानी, विशेषतः मनःपर्यायज्ञानी अपने एवं दूसरे व्यक्तियों के प्रयत्न के बिना पूर्व प्रयोग से मन को जान लेते हैं, मन को जानने से यदि मनोयोग हो जाता है, तब तो कर्मों का आनव कभी रुक नहीं सकेगा। ___ इस शंका का समाधान करते हुए धवला में कहा गया है कि मन को केवल जान लेने (ज्ञान करने) से ही मनोयोग नहीं हो जाता। मनोयोग तभी होता है जब उस मन के साथ तन्निमित्तक प्रयत्न से सम्बन्धित परिस्पन्द हो यानी शुभाशुभता का परिणाम उसके साथ मिश्रित हो। मनोयोग के दो भेद : शुभमनोयोग अशुभ मनोयोग--
मनोयोग के सत्य-मनोयोग आदि चारों प्रकार से यह स्पष्ट प्रतीत हो जाता है कि हम जो भी शुभ-अशुभ, अच्छी-बुरी, हितकर-अहितकर प्रवृत्ति, क्रिया या चेष्टा करते हैं, वह सर्वप्रथम मन में जन्म लेती है। मन जब ठीक होता है तो शुभ विचार-मनन-चिन्तन करता है और जब ठीक नहीं होता, अर्थात् सधा हुआ नहीं होता, तो यथार्थ एवं शुभ विचार नहीं करता। - ---- ____ यद्यपि मन से जो भी शुभ-अशुभ प्रवृत्ति होती है, वह शुभाशुभ मनोयोग आसव है, कर्मों के आगमन-आकर्षण का कारण है, तथापि जब तक छद्मस्थ अवस्था है, तब तक यत्किंचित् राग रहेगा, भले ही वह प्रशस्त राग हो। इसलिए पूर्णतया शुद्ध-रागद्वेषरहित प्रवृत्ति तो क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान में जाकर होती है, उससे पूर्व तक शुभ, अशुभ और शुद्ध तीनों प्रकार का उपयोग रहता है। .. ____ इसलिए शुद्धोपयोग पूर्वक मन की प्रवृत्ति होगी तब तो वह कर्मानवरहित तथा कर्मबन्ध रहित होगी। परन्तु छद्मस्थ भूमिका में सदा सर्वदा निरन्तर शुद्धोपयोग रहना कठिन है, अतः शुभोपयोग में मन का प्रवृत्त रहना कथञ्चित् अभीष्ट माना गया, ताकि अशुभोपयोग से मन बचा रहे।
१. (क) धवला, १/१,१,४९/२८१
(ख) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष पृ. २८८ २. धवला १/१,१,५७/२८३
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