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________________ लेखक की कलम से कर्मः एक अनिवार्य ऊर्जा-शक्ति कर्म एक ऐसी ऊर्जा (energy) अथवा शक्ति (force) है, जो संसार के प्राणीमात्र की क्रियाशीलता, तथा वृत्ति-प्रवृत्ति को संचालित करती है। प्राणीमात्र और विशेष रूप से मानवमात्र की यह विवशता अथवा अनिवार्यता है कि उसे सक्रिय रहना ही पड़ता है। स्वेच्छा से अथवा विवशतावश उसे कोई न कोई क्रिया करनी ही पड़ती है। प्राणी क्षणभर भी निष्क्रिय या क्रिया रहित नहीं रह पाता। अंग्रेजी लोकोक्ति है Activity is life (कर्मठता अथवा क्रियाशीलता ही जीवन है।) कर्म की सत्ता विश्वव्यापी इस क्रियाशीलता की प्रेरक शक्ति है, कर्म । इसी अपेक्षा से कर्म की सत्ता विश्वव्यापी है। प्रत्येक प्राणी में उसकी अवस्थिति है। सामान्य दृष्टि से निद्राधीन व्यक्ति को अकर्मा या निष्क्रिय कह दिया जाता है, परन्तु निद्रा भी जीवन की गतिविधियों को सुचारु रूप से चलाने के लिए उपयोगी है, सहायक है। साधारण भाषा में कर्म न होते हुए भी, वह शरीर एवं मस्तिष्क को . सक्षम तथा गतिशील रखने के लिए आवश्यक और अनिवार्य है, इसलिए निद्रा भी एक क्रिया है, कर्म भी है, और दर्शनावरणीय कर्म के एक उपभेद का फलभोग भी ___ इसी प्रकार जीवन की प्रत्येक क्रिया, प्रक्रिया, गति, प्रगति, उन्नति, अवनति में कर्म एक.अनिवार्य और उपयोगी कारक है। कर्म का विविध रूप .. कर्म मानसिक भी होता है, वैचारिक भी और कायिक भी। मस्तिष्क में प्रवाहित होने वाली विचार तरंगें मानसिक कर्म हैं। वचन की प्रवृत्ति वाचसिक कर्म और काया (शरीर) द्वारा की जाने वाली प्रवृत्तियां कायिक कर्म कहलाती हैं। __ मन, वचन और काया मानव के पास ये तीन ही योग हैं अथवा साधन हैं, जिन से वह कर्म करता है, करवाता है तथा अन्यों द्वारा किये जाने वाले कृत्यों से सहमति व्यक्त करता है। For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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