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________________ ५२. कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) कर्मसिद्धान्त की सर्वश्रेष्ठ उपयोगिता इसी में है कि वह परोक्ष और अगम्य ईश्वर य किसी देवी-देव को प्राणियों के कर्मों का प्रेरक; कर्ता या फलदाता नहीं बताता। वर आत्मा को ही अपने नैतिक-अनैतिक कर्मों का कर्ता, और कर्मों को ही स्वयं फलदात बताकर वैज्ञानिक दृष्टि से कार्य-कारण की मीमांसा करता है। जैनदर्शन या जैनशास्त्रों में कहीं भी यह कथन नहीं मिलेगा कि किसी पुण्य या पाप से युक्त आचरण करने वाले के उसके उक्त कर्म का फल ईश्वर या और कोई शक्ति प्रदान करती हो।' पूर्वोक्त शास्त्रीय उद्धरणों में सर्वत्र कर्मसिद्धान्त के अनुसार ही प्रतिपादन किया गया है, कि अनैतिक या पापयुक्त आचरण करने वाले को नरक या तिर्यञ्च गति अथवा इहलोक में रोग, शोक, दुःख, दुर्दशा आदि फल प्राप्त होते हैं, और जो नैतिक या धार्मिक आचरण करता है तथा पापाचरण या अनैतिक आचरण से दूर रहता है, उसे स्वर्ग या मनुष्यजन्म, उत्तम अवसर, शुभसंयोग, संयम-प्राप्ति या मुक्ति आदि फल प्राप्त होते हैं। किसी ईश्वर या देवी-देव आदि के समक्ष गिड़गिड़ाने, उनकी खुशामद करने, तथा कृत पापों या अनैतिक आचरणों के फल से छुटकारा पाने के लिये प्रार्थना करने से वह या कोई शक्ति उसे उसके कृतकर्मों के फल से मुक्त नहीं कर सकती। कर्म के मामले में ईश्वर या किसी शक्ति का हस्तक्षेप जैन कर्मसिद्धान्त स्वीकार नहीं करता। सप्त कुव्यसनरूप अनैतिक कर्मों का फल किसी माध्यम से नहीं, स्वतः मिलता है जैनाचार्यों ने जैनकर्मसिद्धान्तानुसार नैतिक और अनैतिक आचरणों (कों) का फल स्वतः तथा सीधे ही मिलने की बात कही है, जैसे कि सप्त कुव्यसनरूप अनैतिक आचरण का सीधे (Direct) फल बताते हुए एक जैनाचार्य ने कहा है-"द्यूत, मांसाहार, मद्यपान, वेश्यागमन, शिकार, चोरी, परस्त्रीगमन, लोक में ये सात कुव्यसन हैं, अनैतिक (पापमय) आचरण हैं, जो व्यक्ति को घोरातिघोर नरक में डालते हैं। अथवा व्यक्ति इनसे घोरतम नरक में पड़ते हैं।" यहाँ किसी ईश्वर या किसी शक्ति को माध्यम (बिचौलिया) नहीं बताया गया है कि ईश्वर या अमुकशक्ति कुव्यसनी को घोर नरक में डालती है। अतः नैतिकता के सन्दर्भ में जैनकर्मसिद्धान्त की उपयोगिता स्पष्ट सिद्ध है। १. "अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य।" -उत्तराध्ययन २०/३७ २. (क) 'आत्मापराधवृक्षस्य फलान्येतानि देहिनाम्'-चाणक्यनीति (ख) स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभम्। परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं, स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा ॥ -अमितगति- सामायिकपाठ ३० ३. "द्यूतं च मांसं च सुरा च वेश्या, पापर्द्धि-चौर्य परदारसेवा। एतानि सप्त व्यसनानि लोके घोरातिघोरे नरके पतन्ति ।।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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