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________________ पुण्य-पाप के निमित्त से आत्मा का उत्थान-पतन साधनामय जीवन में पुण्य, पाप और धर्म का स्रोत कहाँ और कैसे? आत्मा अपने आप में निश्चयनय की दृष्टि से परमात्मस्वरूप है, किन्तु उसका परमात्मरूप जब तक आवृत, विकृत, कुण्ठित और सुषुप्त रहता है, तब तक वह परमात्मपद को प्राप्त नहीं कर सकता। इन स्थितियों के रहते परमात्मपद कर्मों से घिरा हुआ एवं जकड़ा हुआ रहता है। शुद्ध आत्मा का कर्मों से बद्ध, स्पृष्ट, श्लिष्ट रहना ही परमात्मरूप की विकृति एवं सुषुप्ति है। वह जब तक पूर्णरूप से साधना द्वारा सिद्ध या उपलब्ध नहीं कर लिया जाता, तब या तो वह पुण्यकर्मों से युक्त रहेगा या फिर पापकर्मों पुण्यकर्मों से युक्त रहेगा तो उसका सुखद फल, सुगति, सुयोनि, सद्धर्म-प्राप्ति, मनुष्यभव, धर्मश्रवण, सद्गुरु-सत्संग आदि आत्मोत्थान के संयोग मिलते रहते हैं। इसके विपरीत जब आत्मा पापकर्मों से युक्त रहेगा, तब उसका दुःखद फल दुर्गति, दुर्योनि, दुर्बुद्धि, नरक-तिर्यञ्चगति, नरक-तिर्यञ्चभव में विविध दुःखों से परिपूर्ण जिंदगी, अबोधि, अज्ञान, धर्मान्धता, जात्यन्धता, अतिस्वार्थ, क्रोधादि कषायों की तीव्रता, विषयभोगों में अत्यधिक आसक्ति आदि संयोग और परिणाम तथा कुसंग आदि मिलते रहते हैं। .... पुण्यशाली व्यक्ति यदि सम्यग्दृष्टि प्राप्त करके साधना करता है तो उसके गृहीत व्रत, नियम, संयम, तपश्चरण, परीषह-सहन, उपसर्ग-समभाव, क्षमा, दया आदि गुण आध्यात्मिक उक्रान्ति के कारण बनते हैं। उस का पुण्य इतना प्रबल हो जाता है कि वह एक देवभव को पाकर फिर महाविदेहक्षेत्र में मनुष्य जन्म लेकर सिद्ध, बुद्ध और सर्वकर्ममुक्त तथा सर्वदुःख-मुक्त हो जाता है। . पापपथ से पुण्यपथ की ओर मुड़कर आत्मा का उत्थान किया इसके विपरीत राजप्रश्नीय सूत्र में जिस प्रदेशी नृप का आख्यान है, वह परमनास्तिक, क्रूर, रक्तलिप्तहस्त था। मनुष्यों को मारना उसके लिए गाजर-मूली काटने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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