SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 541
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मों के विपाक : यहाँ भी और आगे भी ५२१ अतः पुण्यकर्म का प्रत्यक्ष फल भले ही स्वर्गीय सुखों की प्राप्ति हो, परन्तु उसका अनन्तर फल सद्बोधि प्राप्ति, रत्नत्रय की आराधना की भावना, वैसे उत्तम संयोग और निमित्त की उपलब्धि भी होते हैं। सुबाहुकुमार का गृहस्थ धर्म से अनगार धर्म में प्रव्रजित होने का संकल्प एक दिन सुबाहुकुमार को अपनी पौषधशाला में तीन दिन के उपवास (अष्टम भक्त-प्रत्याख्यान-तेले) के दौरान मध्यरात्रि में धर्मजागरणा करते हुए ऐसा संकल्प उठा-“वे ग्राम, नगर आदि धन्य हैं, जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विचरण करते हैं, तथा वे राजा आदि धन्य हैं, जो श्रमण भगवान् महावीर के पास मुण्डित होकर प्रव्रजित होते हैं, अथवा पाँच अणुव्रत एवं सात शिक्षाव्रत वाला गृहस्थ धर्म स्वीकार करते हैं, अथवा जो भगवान् महावीर के श्रीमुख से धर्मश्रवण करते हैं। अगर भगवान् महावीर ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए यहाँ पधारें तो मैं गृह त्यागकर आगार धर्म से अनगार धर्म में प्रव्रजित हो जाऊँ।" सुबाहुकुमार के इस मनोरथ को जानकर भगवान् महावीर हस्तिशीर्ष नगर में पधारे और पुष्पकरण्डक उद्यान में विराजे। सुबाहुकुमार की दीक्षा; अध्ययन, तपश्चरण, एवं समाधि मरण का संक्षिप्त वर्णन सुबाहुकुमार भी अनेक राजाओं, सार्थवाहों आदि की तरह महासमारोहपूर्वक भगवान् के दर्शन, वन्दन, एवं धर्मश्रबण के लिए उपस्थित हुआ। धर्मोपदेश श्रवण कर अत्यन्त हृष्ट-तुष्ट हुआ। फिर उसने भगवान् के समक्ष अपना अनगार धर्म अंगीकार करने का मनोरथ प्रकट किया। भगवान् की सम्मति और माता-पिता की अनुमति पाकर सुबाहुकुमार ने भागवती दीक्षा ग्रहण की। तदनन्तर सुबाहुकुमार अनगार ने तथारूप स्थविरों से सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। साथ ही उपवास, बेला, तेला आदि नाना प्रकार के बाह्य एवं विनय, वैयावृत्य आदि आभ्यन्तर तपश्चरण से अपनी आत्मा को भावित किया। अनेक वर्षों तक श्रामण्य-पर्याय का पालन करके एक मास की संल्लेखना करके आत्मभावों की आराधना की, तथा ६० भक्त (अशन आदि) का प्रत्याख्यान करके आलोचना-प्रतिक्रमणादिपूर्वक समाधि मरण को प्राप्त किया। उज्ज्वल भविष्य : सुबाहुकुमार को अनेक भवों के बाद सर्वकर्ममुक्ति प्राप्त __भगवान् ने उसके उज्ज्वल भविष्य का कथन करते हुए कहा-यहाँ से वह प्रथम देवलोक में देवरूप में उत्पन्न हुआ। वहाँ के आयु, भव, और स्थिति का क्षय होने पर देव शरीर को त्यागकर मनुष्य शरीर को प्राप्त करेगा। यहाँ शंकादिरहित शुद्ध (केवली) बोधि को उपलब्ध करेगा। फिर तथारूप स्थविरों से दीक्षा धारण करके, अनेक वर्षों तक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy