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________________ कर्मों के विपाक : यहाँ भी और आगे भी ५११ शौरिकदत्त का भविष्य : अधिक अन्धकारमय : स्वल्प उज्ज्वल ____ भगवान् से उसके भविष्य के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा-यह शौरिकदत्त ७0 वर्ष की परम आयु भोगकर यथासमय मरकर पहली नरक में नारक रूप में उत्पन्न होगा। उसके बाद लाखों बार पृथ्वीकाय आदि में उत्पन्न होगा। वहाँ से मरकर हस्तिनापुर में मत्स्य होगा। मच्छीमारों द्वारा मार डाले जाने पर उसी नगर में श्रेष्ठिकुल में उत्पन्न होगा। उस भव में इसे सम्यक्त्व की प्राप्ति होगी। वहाँ से मरकर सौधर्म देवलोक में देव होगा। वहां से च्यवकर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगा। वहाँ संयम की सम्यक् आराधना करने से सिद्ध, बुद्ध एवं सर्वकर्म-मुक्त होगा।' देवदत्ता का पूर्वभव : सिंहसेन के रूप में इसके पश्चात् नौवाँ अध्ययन देवदत्ता का है। उसका पूर्वभव इस प्रकार हैसुप्रतिष्ठ नगर का राजा महासेन था। उसके धारिणी आदि एक हजार रानियाँ थीं-उन महासेन नरेश एवं महारांनी धारिणी का आत्मज एक पुत्र था-सिंहसेन। श्यामारानी में आसक्ति : अन्य रानियों की उपेक्षा . यौवन में पदार्पण करते ही महासेन राजा ने सिंहसेन राजकुमार का श्यामा आदि पांच सौ सुन्दर राजकन्याओं के साथ एक दिन में विवाह कर दिया। श्यामादेवी को मारने की योजना __महासेन राजा के देहावसान के पश्चात् सिंहसेन राजगद्दी पर बैठा। किन्तु वह राजा बन जाने पर राजधर्म से विमुख होकर रानी श्यामादेवी में अत्यन्त आसक्त, गृद्ध एवं मूर्छित हो गया। अन्य रानियों का वह न तो आदर करता था, और न ही उनका ध्यान रखता था। इतना ही नहीं, उनका अनादर एवं विस्मरण करता हुआ आनन्द से जी रहा था। उन ४९९ रानियों की माताओं को जब इस बात का पता लगा तो उन सबने मिलकर निश्चय किया कि श्यामादेवी को विष, शस्त्र या अग्नि आदि में से किसी के भी प्रयोग से जीवनरहित कर दिया जाए। इस प्रकार विचार करके इस योजना को कार्यान्वित करने के अवसर की प्रतीक्षा करती रहीं। चिन्तित श्यामादेवी : कोपभवन में श्यामादेवी को विश्वस्त सूत्रों से जब इस बात का पता लगा तो वह अत्यन्त उदास, भयभीत, त्रस्त एवं उद्विग्न होकर कोपभवन में जाकर लेट गई। मन ही मन आर्तध्यान करने लगी। १. देखें, वही, श्रु. १ अ. ८ में शौरिकदत्त का असाध्य रोग ही उसके पाप के फल पृ. ९३, ९४ २. वही, श्रु. १ अ. ९ में देखें-देवदत्ता के पूर्वभव का सिंहसेन के रूप में वृत्तान्त, पृ. ९७ से ९९ तक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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