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________________ ५१० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) नौकाओं में भरते । फिर नौकाएँ नदी तट पर लाते और उन मत्स्यादि को नौकाओं से बाहर निकाल कर एक जगह ढेर कर देते, फिर उन सबको धूप में सुखाने के लिए बालू पर फैला देते। कई दूसरे वेतनभोगी नौकर धूप में सूखी हुई उन मछलियों के मांसों को शूल में पिरोकर आग में पकाते, भूनते, तेल में तलते। इस प्रकार उन्हें तैयार करके वे उन्हें बेचने के लिए राजमार्गों पर सजा कर रखते। इस प्रकार वे आजीविका करते हुए काल-यापन कर रहे थे! शौरिकदत्त भी स्वयं उन शूलाप्रोत किये हुए, भुने हुए, तले हुए मत्स्य-मांसों के साथ विविध प्रकार की सुरा, सीधु आदि मदिराओं का सेवन करता हुआ जीवन यापन कर रहा था। शौरिकदत्त के गले में मछली का कांटा फंस गया : असह्य पीड़ा से आक्रान्त एक दिन शूल द्वारा पकाये हुए, तले हुए एवं भुने हुए मत्स्यमांसों का भोजन करते हुए शौरिकदत्त मच्छीमार के गले में मछली का कांटा फंस गया। इस कारण वह अतीव असाध्य वेदना का अनुभव करने लगा । अत्यन्त पीड़ित शौरिकदत्त ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा -: - शौरिकपुर के तिराहों, चौराहों यावत् सभी मार्गों पर जाकर उच्च स्वर से घोषणा करो - "शौरिकदत्त के गले में मछली का कांटा फँस गया है। जो वैद्य, वैद्यपुत्र, जानकार या जानकार का पुत्र, चिकित्सक या चिकित्सकपुत्र उस मत्स्यकण्टक को निकाल देगा, उसे शौरिकदत्त बहुत-सा धन देगा ।" कौटुम्बिक पुरुषों ने इसी प्रकार की घोषणा कर दी। इस घोषणा को सुनकर बहुत से वैद्य, वैद्यपुत्र आदि शौरिकदत्त के यहाँ आए और अपनी-अपनी औत्पातिकी, वैनयिकी, कार्मिकी एवं पारिणामिकी बुद्धियों का प्रयोग करके सम्यक् निदान किया। तत्पश्चात् ' उन्होंने वमन, छर्दन ( वमन विशेष), अवपीड़न (दबाना), शल्योद्धार, विशल्यकरण, आदि विभिन्न उपचारों से शौरिकदत्त के गले में फंसे कांटे को निकालने तथा पीव को बन्द करने का भरसक प्रयत्न किया, मगर वे सफल न हो सके। आखिर हार थककर वे सब वापस चले गए। वैद्य एवं चिकित्सकों आदि के इलाज से निराश एवं निरुपाय शौरिकदत्त उस भयंकर असह्य वेदना को भोगता हुआ सूखकर अस्थिपंजर मात्र रह गया। उसका शरीर रूखा, सूखा, भूखा एवं मांसरिहत अतिकृश हो गया । उठते-बैठते हड्डियाँ कड़कड़ करती थीं। गले में मछली का कांटा फंस जाने से वह अतिकष्टपूर्वक दीन-हीन-दयनीय स्वर में कराहता रहता था। वह रक्त, पीव और कीड़ों के कौरों का बार-बार वमन करता रहता था। इस प्रकार वह दुःखपूर्ण जीवन जी रहा था। पूर्वजन्मकृत घोर पाप कर्मों का ही यह दुष्फल था। 9. देखें, वही, श्रु. १ अ. ८ में शौरिकदत्त के जन्म, पितृवियोग, तथा मत्स्य मांस व्यापार का वृत्तान्त पृ. ९३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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