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परस्त्रीगमन के पापकर्म का इहलोक में ही दुष्फल मिला
एक दिन उदयन नरेश स्नानादि से निवृत्त होकर अलंकारों से विभूषित होकर पद्मावती देवी के महल में आया। वहाँ पद्मावती देवी के साथ बृहस्पतिदत्त पुरोहित को अनाचार सेवन करते देखा। देखते ही क्रोध से आगबबूला हो गया। तुरंत ही राजपुरुषों द्वारा पकड़वाकर लाठी, मुक्कों, लातों आदि से प्रहारकर उसका कचूमर निकाल दिया। फिर उसे वध्य-पुरुष के मण्डनों से मण्डित कर वध्यभूमि की ओर ले गए और शूली पर चढ़ाया।
कर्मों के विपाक : यहाँ भी और आगे भी ५०३
बृहस्पतिदत्त का भविष्य अधिक अन्धकारमय, अन्त में उज्ज्वल
बृहस्पतिदत्त पुरोहित ६४ वर्ष की आयु में इस प्रकार मृत्यु प्राप्त कर एक सागरोपम की स्थिति वाले प्रथम नरक में उत्पन्न हुआ। वहाँ से निकलकर वह क्रमशः सभी नरकों में, सभी तिर्यंच जीवों में तथा एकेन्द्रिय जीवों में लाखों बार जन्म-मरण करेगा। तत्पश्चात् हस्तिनापुर में मृग के रूप में जन्म लेगा । वहाँ वह पारधियों द्वारा मारा जाएगा। और इसी हस्तिनापुर में श्रेष्ठिपुत्र के रूप में जन्म लेगा । यथासमय सम्यक्त्व प्राप्त करेगा। वहाँ से मरकर वह सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा । फिर वहाँ से व्यवकर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा । वहाँ अनगार वृत्ति धारण कर संयम की शुद्ध आराधना करके सर्वकर्मों का अन्त करेगा, सिद्ध-बुद्ध-युक्त होगा ।'
छठा अध्ययन : नन्दिवर्द्धन का पूर्वभव : दुर्योधन चारकपाल के रूप में
इसके छठे अध्ययन का नाम नन्दिवर्द्धन है। इसका पूर्वभव का जीवन भी पापकर्मों से परिपूर्ण था। सिंहपुर नगर नरेश सिंहरथ के राज्य में दुर्योधन नामक महापापी क्रूरकर्मा एवं अधर्मिष्ठ चारकपाल ( जेलर ) या दण्डनायक था। उसे अपराधियों को दण्ड देने का कार्य सौंपा गया था। राज्य की ओर से उसे दण्ड देने के एक से एक बढ़कर कठोर एवं तीक्ष्ण साधन एवं शस्त्रास्त्र मिले हुए थे। दुर्योधन दण्डनायक राज्य के अनेक चोरों, परस्त्रीगामियों, गिरहकटों, राजा के शत्रुओं, ऋण लेकर वापस न देने वालों, शिशुघातकों, विश्वासघातकों, जुआरियों एवं धूर्त पुरुषों को राजपुरुषों द्वारा पकड़वाकर कठोर दण्ड देता था ।
दुर्योधन चारकपाल द्वारा किया गया अत्याचार पापकर्म परिपूर्ण
कितनों को ऊर्ध्वमुख (चित्त) गिराता और लोहे के डंडे से उनका मुख खोलकर खौलता हुआ तांबे का रस पिलाता, कइयों को रांगा, शीशा, चूर्णादि मिश्रित जल, अथवा
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देखें, विपाकसूत्र श्रु. १, अ-५ में वृहस्पतिदत्त का वर्णन पृ. ६८, ६९
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