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________________ ५०० कर्म-विज्ञान : भाग - २ : कर्मफल के विविध आयाम (५) पापकर्म के फलस्वरूप शकट की दुर्गति चतुर्थ नरक का आयुष्य पूर्ण करके वह साहंजनी नगरी में सुभद्र सार्थवाह की भद्रा नामक पत्नी की कुक्षि से उत्पन्न हुआ। उसका नाम रखा गया ‘शकट'। पापकर्म के फलस्वरूप माता-पिता दोनों की मृत्यु हो जाने पर राजपुरुषों ने शकट को घर से निकाल दिया। अब वह जूआघरों, वेश्यालयों, मदिरालयों आदि स्थानों में आवारा एवं बेरोकटोक घूमने लगा। गणिका सुदर्शना में आसक्ति, निष्कासन करने पर भी पुनः गाढ़ी प्रीति साहजनी नगरी की प्रसिद्ध गणिका सुदर्शना के साथ उसकी गाढ़ी प्रीति हो गई । उसके साथ कामभोग-सेवन करता हुआ वह वहीं डेरा डाले पड़ा रहता था। एक बार सिंहगिरि राजा के अमात्य सुषेण ने शकट को सुदर्शना गणिका के घर से निकलवा दिया, उस गणिका को अपनी प्रेमिका बनाकर सुषेण ने अपने घर में पत्नी के रूप में रख लिया और उसके साथ कामभोग भोगने लगा। शकट भी रात-दिन इस गणिका को पाने की धुन में बार-बार उसके आवासगृह के आसपास मंडराता रहता था। एक दिन मौका पाकर वह सुदर्शना गणिका के घर में प्रविष्ट हो गया और उसके साथ पुनः पूर्ववत् कामभोग भोगने लगा। पापकर्म के कारण शकट की दुर्दशापूर्ण मृत्यु एक दिन वस्त्रालंकारों से सुसज्जित होकर सुषेण मंत्री सुदर्शना गणिका के आवासगृह पर आया। आते ही उसने शकट को सुदर्शना गणिका के साथ रमण करते हुए देखा तो एकदम क्रोधाविष्ट हो गया और अपने पुरुषों से शकट को पकड़वाकर डंडों, लाठियों, बेंतों, मुक्कों, लातों और कोहनियों से उसे पिटवा - पिटवाकर उसका कचूमर निकाल दिया। उसके दोनों हाथ पीठ की ओर बांध दिये और राजा महच्चन्द्र के समक्ष उसे प्रस्तुत किया।" महच्चन्द्र राजा ने सुषेण मंत्री की इच्छा पर उसे दण्ड देने का काम छोड़ दिया। सुषेण मंत्री ने शकट और सुदर्शना गणिका का वैसा ही हुलिया बनवा दिया, जैसा उज्झतक का बनाया था। और उसी प्रकार उसको और गणिका को प्रत्येक चौराहे पर कोड़ों से पीटा जाता, उनका मांस काट-काटकर उन्हें ही खिलाया जाता। इस प्रकार शकट को अपने पूर्वोपार्जित पापकर्मों का दुःखद फल लोहे की तपतपाती अतिगर्म स्त्री-प्रतिमा से आलिंगन कराने के रूप में मिला। १. देखें- दुःखविपाक श्रु. १ अ. ४ में शकट के पूर्वभव का तथा उत्तरभव का वृत्तान्त पृ. ५९, ६० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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