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________________ कर्मों के विपाक : यहाँ भी और आगे भी ४९९ पौत्रियों व दौहित्रियों के पतियों को, बारहवें पर पौत्रों और दौहित्रों की पत्नियों को, तेरहवें पर फूफाओं को, चौदहवें पर बुआओं को, पन्द्रहवें पर मौसाओं को, सोलहवें पर मौसियों को, सत्रहवें पर मामियों को, अठारहवें चौराहे पर शेष मित्र, ज्ञाति, स्वजन सम्बन्धी और परिजनों को चोर-सेनापति अभग्नकुमार के आगे करके मारते हैं। इस प्रकार प्रताड़ित एवं अपमानित करके सबके सामने दिन में सूली पर चढ़ाया। यों अभग्नसेन पूर्वोपार्जित पापकर्मों के फलस्वरूप नरकतुल्य घोर वेदना अनुभव करता हुआ मरकर प्रथम नरक में उत्पन्न हुआ।' अभग्नसेन का भविष्य अभग्नसेन के भविष्य के बारे में पूछने पर भगवान् ने कहा-प्रथम नरक से निकल कर वह मृगापुत्र के समान अनन्त संसार में परिभ्रमण करेगा। यहाँ तक कि वह पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय और वायुकाय में लाखों बार जन्म-मरण करेगा। फिर वहाँ से निकल कर वाराणसी नगरी में सूअर के रूप में उत्पन्न होगा। एक दिन शिकारी उसे मार डालेंगे। तत्पश्चात् वह वाराणसी में ही श्रेष्ठी कुल में उत्पन्न होगा। बाल्यावस्था पार करके युवावस्था में आते ही प्रव्रजित होकर संयम की आराधना करके यावत् निर्वाणपद प्राप्त करेगा। सर्व कर्म मुक्त होगा। जन्म मरण का अन्त करेगा। छणिक के भव में विविध पशुओं के माँस का पापपूर्ण व्यापार करने का दुष्फल . चौथा शकट नामक अध्ययन है। शकट पूर्वभव में छगलपुर नगर का छण्णिक नामक छागलिक था। वह बकरों आदि का मांस बेचकर आजीविका करने वाला कसाई था। उसने कई बाड़ों में सौ-सौ तथा हजार-हजार की संख्या में बकरों, भैंसों, बैलों, रोझों, खरगोशों, हिरणों, मृगशिशुओं, सूअरों, सिंहों, मयूरों आदि पशु-पक्षियों को बाँधकर रखे थे। उनकी रखवाली के लिए उसने कई नौकर रखे थे। कई ऐसे भी नौकर रखे थे, जो बकरों, महिषों आदि के मांसों को तवों पर तथा कड़ाहों, हांडों एवं लोहे के बर्तनों में डालकर तलते, भूनते और पकाते थे। और मांसाहारी ग्राहकों को बेच देते थे। छणिक स्वयं भी पंचविध मद्यों के पान के साथ मांसों का सेवन-आस्वादन करता था। इस प्रकार छणिक ने मांसाहार, मद्यपान करना-कराना अपना कर्तव्य बना लिया था। ये ही पापपूर्ण प्रवृत्तियाँ-(कर्म) उसके जीवन की प्रधान अंग, मुख्य-कर्म बन गयी थीं। यही उसकी पाप-विद्या और पाप-समाचारी बन गई थी। इस प्रकार छण्णिक बहुत क्लेशोत्पादक, कालुष्यपूर्ण एवं अतिक्लिष्ट पापकर्मों का उपार्जन करके ७00 वर्ष की लम्बी आयु भोगकर यथाकाल वहाँ से मरकर चतुर्थ नरक में नारक रूप में उत्पन्न हुआ। १. वही, अ. ३ अभग्नसेन का वृत्तान्त पृ. ४३-४४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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