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________________ कर्मों के विपाक : यहाँ भी और आगे भी ४९७ उसका मांस काटा जा रहा था, और उसे ही उस मांस के छोटे-छोटे टुकड़े खिलाये जा रहे थे। सैकड़ों स्त्री-पुरुषों के सामने हर चौराहे पर फूटा ढोल बजाकर घोषणा की जा रही थी—‘“यह उज्झितक पापात्मा अपने ही दुष्कृत्यों के कारण ऐसी दुर्दशा पूर्ण सजा पा रहा है।" इसका भविष्य भी ऐसा है वह मृगापुत्रवत् तिर्यञ्च, नरक आदि के लाखों भवों में भ्रमण करेगा। अन्त में, चम्पानगरी में श्रेष्ठिकुल में उत्पन्न होकर उसी भव में अनगारधर्म ग्रहण करेगा, फिर सौधर्म देवलोक में उत्पन्न होगा। वहाँ से व्यवकर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर संयम पालन करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होगा। यह है - उज्झितक के पूर्वजन्म के और इस जन्म के पापकर्मों का भयंकर फल जिसे उसको जबरन भोगना पड़ा। अभग्नसेन पूर्वभव में : निर्णय नामक अण्डों तथा मद्य का व्यापारी एवं सेवनकर्त्ता तृतीय अध्ययन अभग्नसेन, चोर सेनापति का है। वह पूर्वजन्म में पुरिमताल नगर में निर्णय नाम का अण्डों का व्यापारी था। मोर, मुर्गी, कौवी आदि जलचर, स्थलचर, खेचर जीवों के अण्डों का संग्रह करके अपने कर्मचारियों द्वारा अण्डवणिकों को मुहैया कराता था। वे उसे अपनी-अपनी दुकानों में पकाकर विविध प्रकार की मदिरा के साथ ग्राहकों को खिलाते -पिलाते थे। स्वयं निर्णय भी पंचविध मद्यों के साथ अण्डे | पकाकर खाता था। अभग्नसेन के भव में नागरिकों को त्रस्त करने तथा कुव्यसनियों के पृष्ठ पोषक बनने का कुपथ्य इस प्रकार का भयंकर पापकर्म उपार्जित करके वह दीर्घकाल के पश्चात् मरकर सात सागरोपम स्थिति वाली तृतीय नरकभूमि में नारकरूप में उत्पन्न हुआ। वहाँ से आयुष्य पूर्ण करके वह उसी पुरिमताल के बाहर शालाटवी नामक चोरपल्ली में विजय नामक चोर सेनापति के पुत्र के रूप में पैदा हुआ। उसका नाम अभग्नसेन रखा गया। पिता की मृत्यु के बाद ' अभग्नसेन को उसके ५०० चौर्यसहायकों ने चोर सेनापति पद दिया । वह भी अपने पिता की तरह महाअधर्मी, अधर्माचारी एवं मारो, काटो, छेदो, भेदो इस प्रकार के उद्गार निकालता हुआ अनेक ग्राम-नगरों का विनाश करने लगा। पशुओं का अपहरण करने, पथिकों को लूटने, चोरी करने, नागरिकों को संत्रस्त करने में वह निष्णात बन गया था। वह अनेक चोरों, गठकटों, परस्त्रीलम्पटों, जुआरियों, ठगों, नकटों, लूलों, लगड़ों आदि लोगों का संरक्षक बना हुआ था। १. देखें - विपाकसूत्र श्रु. १ अ. ३ में अभग्नसेन के पूर्वभव और इहभव का वृत्तान्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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