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________________ ४९६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) इस प्रकार वह क्रूरकर्मा एवं पाप विद्या निपुण गोत्रास दीर्घकालिक आयुष्य पूर्ण करके मरकर दूसरे नरक में नारकरूप में उत्पन्न हुआ।' उज्झितक के भव में माता-पिता के वियोग, तिरस्कार तथा अपमान का दुःख भोगना पड़ा नरक का यातनापूर्ण दीर्घ जीवन बिताकर वह विजयमित्र सार्थवाह की पत्नी सुभद्रा के उदर से पुत्र रूप में जन्मा। उज्झितक नाम रखा। यहाँ भी पूर्वकृत पापकर्म के फलस्वरूप उसके पिता-माता अकाल में ही कालकवलित हो गए। उनकी मृत्यु के बाद . नगररक्षकों ने उसके पिता के ऋणदाता को उसका घर सौंपकर उज्झितक को घर से निकाल दिया। आवारा भटकता हुआ उज्झितक कुव्यसनों में रत रहने लगा तत्पश्चात् उज्झितक राजमार्गों, सामान्य मार्गों, जूआघरों, वेश्यालयों, मदिरालयों आदि में बेरोकटोक आवारा भटकने लगा। वह निरंकुश एवं स्वच्छन्दाचारी होकर कुछ ही दिनों में चोरी, जुआ, वेश्यागमन, और परस्त्रीगमन में पूर्णतः रत हो गया। इसके पश्चात् एक बार वह वाणिज्यग्राम की प्रसिद्ध गणिका कामध्वजा पर मोहित और आसक्त होकर उसी के साथ विषय-भोगों का उपभोग करता हुआ जीवन यापन करने लगा। वेश्यासक्त उज्झितक को पापकर्मों के फलस्वरूप दुर्दशापूर्ण मृत्युदण्ड मिला वहाँ का राजा बलमित्र अपनी रानी को योनिशल से पीड़ित देख नगरवधू कामध्वजा के यहाँ से उज्झितक को निकलवाकर स्वयं उसके साथ विषयभोग भोगने लगा। उज्झितक वहाँ से निकला तो सही, किन्तु कामध्वजा पर उसकी गहरी आसक्ति के कारण रातदिन उसी को पुनः पाने की धुन में रहने लगा और ऐसा मौका ढूंढने लगा, जब विजयमित्र नृप की उपस्थिति उसके यहाँ न हो। एक बार उसे ऐसा मौका मिल ही गया। एक दिन बलमित्र राजा कामध्वजा के यहाँ पहुँचा, उसने वहाँ उज्झितक को देखा तो क्रोध से आगबबूला होकर उसने उसी समय उसे गिरफ्तार करवाया और लाठी, मुक्के, लातों और थप्पड़ों के प्रहारों से पीट-पीटकर उसका कचूमर निकाल दिया। फिर उसके दोनों हाथ उलटे बांध दिये गए और नाक-कान कटवाकर उसके गले में लाल पुष्पमाला डलवाई। उसका शरीर गेरुए रंग से पोता गया। और उसे वध्यभूमि ले जाया जा रहा था। आरक्षक उस पापात्मा पर पत्थरों और चाबुकों से प्रहार कर रहे थे। तिल-तिल करके १. देखें, वही श्रु. १ अ. २ में उज्झितक के पूर्वभव तथा इहभव का वृत्तान्त। २. देखें-विपाकसूत्र श्रु.१ अ.२, में उज्झितक के भव का वृत्तान्त और उसके भविष्य का कथन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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