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________________ आध्यात्मिक क्षेत्र में कर्म-विज्ञान की उपयोगिता ३१ आत्मा चैतन्यशक्ति का धारक होते हुए भी शरीर और शरीर से सम्बन्धित सजीव-निर्जीव परपदार्थों का राग-द्वेष, मोह-ममत्वादि कषायों के साथ सेवन करता है, राग-द्वेष (प्रीति-अप्रीति) के कारण किसी पदार्थ को इष्ट, किसी को अनिष्ट, किसी को सुखरूप, किसी को दुःखरूप, किसी को अनुकूल एवं मनोज्ञ और किसी को प्रतिकूल और अमनोज्ञ मानता है, तब ये जड़कर्म आत्मा की विराट् शक्ति पर हावी हो जाते कर्मविज्ञान : अन्धकार से प्रकाश की ओर बढ़ने के लिए प्रेरक जैनकर्मविज्ञान प्रत्येक आत्मा को अन्धकार से प्रकाश की ओर बढ़ने की प्रेरणा देता है। वह अन्धकार के कारणों और रूप का भी निरूपण करता है और कर्मों से मुक्त होने और उक्त अन्धकार से निकलने का भी प्रबल उपाय बताता है। कर्मविज्ञान बताता है कि आत्मा अनादिकाल से अनेक गतियों और योनियों में परिभ्रमण करती आ रही है। इस संसारचक्र में परिभ्रमण का मूल कारण कर्मों का आवरण है। वह कर्मावरण राग, द्वेष, मोह आदि कषायों के कारण होता है। कर्मों का बन्ध और आस्रव अन्धकार में प्रवेश है और संवर, निर्जरा और मोक्ष प्रकाश की ओर ले जाने वाले हैं। कर्मविज्ञान इन दोनों पहलुओं पर पर्याप्त प्रकाश डालता कर्मविज्ञान में आध्यात्मिक उत्क्रान्ति के लिए तीन सोपान ____ कर्मविज्ञान में आध्यात्मिक विकास के शिखर पर पहुँचने की प्रक्रिया में तीन सोपान बताए गए हैं-यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण। जिस प्रकार एक पर्वत से निकल कर समतल मैदान में बहती-बहती सरिता जब समुद्र की ओर बढ़ती है तो उसमें बहते हुए कई पाषाण आपस में टकराते-टकराते स्वतः गोलमटोल हो जाते हैं; इसी प्रकार चतुर्गतिक संसार चक्र में परिभ्रमण करते-करते अनेकविध शारीरिक और मानसिक आघात-प्रत्याघातों के कारण या कटु-मधुर संवेदनों के कारण आत्मा के परिणाम भी कुछ कोमल, मृदु, सरल और निश्छल होने लगते हैं। भावमलों मोहादि अशुभ भावों की तीव्रता और प्रबलता भी मन्द होती जाती है। इसके फलस्वरूप कर्मों की स्थिति तथा गाढ़ता कम हो जाती है। और तब राग-द्वेष की तीव्रतम (गांठ) ग्रन्थी को भेदन करने काटने की बहुत कुछ अंशों में योग्यता प्राप्त हो जाती है। अज्ञानपूर्वक संवेदन-जनित इस अत्यल्प आत्मशुद्धि को, अत्यल्प निर्मल परिणामों को यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं। १. योगदृष्टिसमुच्चय के विवेचन (डॉ. भगवानदास म. मेहता) से सारांश उद्धृत। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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