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________________ ४७६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) तब या तो वह साधक अन्तक्रिया (मुक्ति) के योग्य या फिर वैमानिक देवों में उत्पन्न होने योग्य आराधना करता है।" ___ “अनप्रेक्षा से जीव आयष्य कर्म के सिवाय शेष सात कर्मों की गाढ़ बन्धन से बद्ध प्रकृतियों को शिथिल बन्धन वाली कर लेता है।" "धर्मकथा से जीव कर्मों की निर्जरा और प्रवचन-प्रभावना करता है। प्रवचन प्रभावना करने वाला जीव भविष्य में शुभफल दायक कर्मों का बन्ध करता है।" ___ “वैयावृत्य से जीव तीर्थंकर नाम गोत्र कर्म का उपार्जन (उपलब्ध) करता है।'' पापकर्म के प्रवल कारणभूत प्रमाद का दुष्फल कर्मबन्ध के प्रबल कारणभूत प्रमाद के फल के विषय में आचारांग में कहा है“अन्धापन, बहरापन, गूंगापन, कानापन, लूला-लंगड़ापन, कुबड़ापन, बौनापन, कालापन, चितकबरापन (कुष्ट आदि चर्मरोग) आदि रोगों की प्राप्ति अपने प्रमाद के कारण होती है। वह अपने प्रमाद (कर्म) के कारण ही नाना प्रकार की योनियों में जाता है और विविध प्रकार के आघातों (वेदनाओं) का अनुभव करता है। वह प्रमादी पुरुष कर्मसिद्धान्त को नहीं समझता हुआ शारीरिक दुःखों से हत तथा मानसिक दुःखों से उपहत (पुनः पुनः पीड़ित) होता हुआ जन्म-मरण के चक्र में बार-बार भटकता है।" स्त्रियों में कामासक्ति का फल ___स्त्री को भोगसामग्री मानकर उसके भोग में लिप्त हो जाना आत्मा के लिए कितना अहितकर/घातक है, इसके जताने के लिए शास्त्रकार कहते हैं-“ये स्त्रियाँ आयतन (धार्मिक जनों के मिलन का स्थान) हैं, किन्तु उनका यह कथन/धारणा दुःख, मोह, मृत्यु, नरक एवं तिर्यंचगति के लिए होता है। वस्तुतः स्त्रियाँ भोग-सामग्री हैं, उनसे संसार पराजित है। (विषयभोगों में) मूढ़ रहने वाला मनुष्य धर्म को नहीं जानता। माया और प्रमाद के वशीभूत मनुष्य बार-बार गर्भ में आता (जन्म-मरण करता) है।''३ “अज्ञानी पुरुष हिंसादि क्रूर कर्म करता हुआ दुःख को उत्पन्न करता है। वह मूढ़ उसी दुःख से उद्विग्न होकर विपरीत दशा (सुख के बदले दुःख) को प्राप्त होता है।'' १. वही, अ. २९/सूत्र १0, १४,२२,२३,४३ २. आचारांग सूत्र श्रु. १, अ.२/उ.३/सू.७६-७७ अनुवाद और विवेचन (आ. प्र. समिति, ब्यावर) पृ-५०-५२ ३. (क) आचारांग सूत्र श्रु.१, अ.२, उ.४/सू.८४ अनुवाद और विवेचन (आ. प्र. स. व्यावर) पृ.५६-५७ (ख) वही, १/३/१ सू.१०८ पृ. ८९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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