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पुण्य और पाप के फल : धर्मशास्त्रों के आलोक में ४७५
विपरीत दृष्टि वाले उभयभ्रष्ट साधकों का उभयलोक भ्रष्ट
विपरीत दृष्टि वाले साधकों को उभयलोक भ्रष्ट बताते हुए कहा गया है- जो (द्रव्य साधु) उत्तमार्थ (मोक्ष) के विषय में विपरीत दृष्टि रखता है, उसकी श्रमणधर्म में रुचि व्यर्थ है। उसके लिए न तो यह लोक है, और न परलोक। वह दोनों लोकों के प्रयोजन से शून्य होने के कारण दोनों लोकों से भ्रष्ट भिक्षु चिन्ता से क्षीण हो जाता है।' चोरको मृत्यु दण्ड : अशुभकर्मों का परिणाम
महर्षि समुद्रपाल ने एक चोर को वध्य स्थान की ओर से जाते हुए देखकर उसके लिए ये उद्गार निकाले -"अहो ! अफसोस है ! (इसके) अशुभकर्मों का यह पापरूप ( अशुभ- दुःखद ) निर्याण परिणाम है।"२
तीर्थकर वेमिनाथ का कथन : प्राणिवधजनित पाप कर्म में श्रेयस्कर नहीं
तीर्थंकर अरिष्टनेमि जब बारात लेकर विवाह के लिए जा रहे थे, तब बाड़ों और पिंजरों में बंद पशु-पक्षियों को देख और सारथि से पूछने पर उन्होंने उन जीवों पर करुणा प्रेरित होकर कहा - "यदि मेरे कारण से इन बहुत-से प्राणियों का वध होगा तो (पापकर्म का कारक ) यह परलोक में मेरे लिए निःश्रेयस्कर (कल्याणकर) नहीं होगा । ३ पशुवध प्ररूपक वेद और यज्ञ: पापकर्मों से रक्षा नहीं कर सकते
पशुवधादि प्रेरक वेद और यज्ञ पापकर्म के हेतु रूप होने से दुःशील मनुष्य की रक्षा करने में असमर्थता बताते हुए कहा गया है - "सभी वेद पशुवध-प्ररूपक हैं, और यज्ञ भी हिंसा मूलक होने से पापकर्मों से वे दुःशील की रक्षा नहीं कर सकते, क्योंकि कर्म बलवान् होते हैं । '४
वन्दना, स्तुति, अनुप्रेक्षा, प्रवचन प्रभावना, वैयावृत्य आदि का सुफल
उत्तराध्ययन सूत्र के २९वें अध्ययन में वन्दना आदि का फल बताते हुए कहा गया है - " वन्दना से जीव नीच गोत्र कर्म का क्षय करता है, उच्चगोत्र कर्म का बन्ध करता है। तथा वन्दनकर्ता की आज्ञा सर्वत्र अबाधित (ग्राह्य) होती है, और वह जनता द्वारा अनुकूल (दाक्षिण्य) भाव को प्राप्त करता है । "
"स्तव-स्तुतिमंगल से जीव ज्ञान-दर्शन- चारित्र रूप बोधि लाभ से सम्पन्न होता है।
१. वही, अ-२० / ४९.
२ . वही, अ-२१/९.
३. वही, अ-२२/१९.
४. वही, २५/३०..
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