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________________ पुण्य और पाप के फल : धर्मशास्त्रों के आलोक में ४७३ शरीरासक्त तथा विविध पापकर्मों में आसक्त व्यक्तियों को दुःखद नरक प्राप्ति. "जो मनुष्य शरीर में, वर्ण-रूप (रंग-रूप) में मन-वचन-काय से आसक्त हैं, वे सभी दुःखद कर्मों की उत्पत्ति (बन्ध) के कारण होते हैं (अर्थात् वे दुःखद कर्मफल पाते ___ "जो मनुष्य हिंसक है, अज्ञानी है, मिथ्याभाषी है, लुटेरा है, दूसरों की दी हुई वस्तु को बीच में ही हड़पने वाला है, चोर, मयावी (ठग), देखते-देखते वस्तु का अपहरण कर लेता है, शठ और धूर्त है; स्त्रियों और रूपादि विषयों में गृद्ध (आसक्त) है, मद्य मांस का उपभोक्ता है, शरीर से हृष्टपुष्ट है, दूसरों को दबाता-सताता है; बकरे की तरह कर्कर शब्द करता हुआ मांसादि अभक्ष्य पदार्थों का सेवन करता है, जिसकी मोटी तोंद है और रक्ताधिक्य के कारण जिसका शरीर लाल हो रहा है, ऐसा व्यक्ति उसी प्रकार नरक गति में गमन की आकांक्षा (प्रतीक्षा) करता है, जिस प्रकार परिपुष्ट मेमना मेहमान के आने की प्रतीक्षा करता है।'' पापकों के भार से भारी जीव बनते हैं-नरकागारी - कर्मों से भारी बने हुए जीव नरकगामी होते हैं, इसका प्रतिपादन करते हुए शास्त्रकार कहते हैं-"जो मनुष्य केवल वर्तमान (निकटवर्ती या प्रेय) को ही देखने में तत्पर है; वह अशन (खान-पान), शयन, वाहन (यान) एवं अन्य कामभोगों को भोग कर तथा दुःख से बटोरा हुआ धन यहीं छोड़ जाता है, परन्तु प्रचुर कर्मरज संचित करके कों से भारी बन जाता है, वह जीव मरणान्तकाल में वैसे ही शोक करता है, जैसे कि मेहमान के आने पर मेमना करता है। तत्पश्चात् विविध प्रकार से हिंसा करने वाले जीव आयुष्य के परिक्षीण होने पर जब शरीर से पृथक् (च्युत) होकर जाते हैं, तब वे अपने कृत पापकों के अनुसार विवश होकर अन्धकारपूर्ण आसुरी दिशा (नरक) की ओर जाते हैं।" : : ये हैं विविध पापकर्मों-क्रूरकर्मों के फल ! पापमयी परस्परविरोधी दृष्टियों का फल : नरक एवं सर्वदुःख-अमुक्ति ___उत्तराध्ययन सूत्र के आठवें अध्ययन में बताया गया है कि "जो लोग हिंसा आदि पापमयी दृष्टि से दूषित हैं, वे मन्द और अज्ञानी अपनी पापपूर्ण दृष्टियों के कारण नरक में जाते हैं। अथवा जो प्राणिवध का अनुमोदन करता है, वह कदापि समस्त दुःखों से मुक्त नहीं हो सकता।" १. २. वही, अ. ६ गा. १२, तथा अ. ७ गा. ५-६-७ वही, अ.७ गा. ८-९-१०. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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