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________________ ४७२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) यह है:-पापकर्मों का भयंकर प्रतिफल, जो अन्तिम समय में मनुष्य की आँखों के समक्ष उसके पाप चलचित्र की तरह आ जाते हैं। सकाममरण से मृत पुण्यशाली लोगों के पुण्य का फल इससे आगे सकाम मरणशील पुण्यशाली आत्माओं के पुण्य का फल बताते हुए कहा गया है- संयत, जितेन्द्रिय, नानाशीलव्रताचारी एवं पुण्यशाली आत्माओं का मरण - अतिप्रसन्न और आघात रहित होता है। जो श्रद्धावान् गृहस्थ श्रावक सामायिक साधना के सभी अंगों का काया से आचरण करता है, दोनों पक्षों में पौषधव्रत करना नहीं छोड़ता, शिक्षाव्रतों का अभ्यासी है, वह गृहवास में रहता हुआ भी मनुष्य शरीर से मुक्त होकर, देवलोक में जाता है। ' कामभोगों से अनिवृत्ति एवं निवृत्ति का फल : नरक-तिर्यंच तथा देव-मनुष्यगति मैंने ऐसा सुना है कि जो मनुष्य जन्म मिलने पर भी काम-भोगों से निवृत्त ( उपशान्त या उपरत ) नहीं होता, उसका आत्मार्थ यानी आत्मप्रयोजन (स्वर्गादि) सापराध (भ्रष्ट) हो जाता है, क्योंकि न्याययुक्त मार्ग को सुनकर (स्वीकार करके) भी भारी कर्मवाला मानव उससे पुनः परिभ्रष्ट हो जाता है। अर्थात्-आत्मा से जो अर्थ सिद्ध करना था, वह आत्मधन ही सदोष हो जाता है। किन्तु जो व्यक्ति मनुष्य जन्म पाकर काम - निवृत्त हो जाता है, उसका आत्मार्थ (स्वर्गादि) सापराध (विनष्ट) नहीं होता, अथवा उसका आत्मधन नष्ट नहीं होता, बिगड़ता नहीं । वह पूतियुक्त ( दुर्गन्धयुक्त अशुचि) औदारिक शरीर को छोड़कर देव होता है। देवलोक से च्यव कर वह जीव उन मनुष्यों (मानवकुलों) में उत्पन्न होता है, जहाँ श्रेष्ठ ऋद्धि, द्युति, यश, वर्ण (प्रशंसा) दीर्घ आयु और प्रचुर (अनुत्तर) सुख होते हैं। अधर्मिष्ठ नरक में और धर्मिष्ठ देवलोक में उत्पन्न होता है "अज्ञानी जीव की अज्ञानता (बालिशता) को देख, वह अधर्मिष्ठ सद्धर्म का त्याग करके अधर्म का अंगीकार करके नरक में उत्पन्न होता है। इसके विपरीत धीर पुरुष की धीरता को भी देख, वह धर्मिष्ठ व्यक्ति अधर्म का परित्याग करके समस्त धर्मानुवर्ती होकर (धर्म के सभी अंगों का आचरण करके) देवों में उत्पन्न होता है। '३ 9. २. ३. उत्तराध्ययन अ. ५ गा. १८,२३,२४ देखें - उत्तराध्ययन अ. ७ गा. २५-२६-२७ का भावार्थ एवं विवेचन ( आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर ) पृ.१२१ देखें - उत्तराध्ययन अ. ७ गा. २८-२९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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