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________________ पुण्य-पाप के फल : हार और जीत के रूप में ४६५ एक दिन वह राजा मंत्री के साथ वन में सैर करने गया। वहाँ पके आम्र फलों से लदे आम के पेड़ों को देखकर राजा का मन ललचा गया। मंत्री के बहुत मना करने पर भी वैद्य के सुझाव को भूलकर उसने स्वादलोलुपतावश एक आम खा लिया। आम खाते ही राजा के शरीर में रोग ने भयंकर रूप धारण किया और देखते ही देखते वहीं राजा के प्राण पखेरू उड़ गए। राजा ने पूर्व पुण्यराशि के फलस्वरूप सुखमय जीवन और राज्य पाया था, अब उसके लिए विभिन्न स्वादों एवं इन्द्रिय-विषयसुखों पर नियंत्रण करने और कामभोगों के आपात-रमणीय क्षणिक सुख का त्याग करके त्याग, नियम, व्रत, दान, शील, तप आदि से नवीन पुण्य-अर्जन करने का शुभ अवसर था। परन्तु विषयसुखलुब्ध राजा इसे भूलकर पापमय प्रेयमार्ग की ओर लुढ़क गया। हितैषी पुरुषों के मना करने पर भी पुण्य-पाप के खेल का अकुशल खिलाड़ी बाजी हार जाता है। दिव्य-सुख रूप फल के कारणभूत त्याग, नियम आदि को भूल जाता है; और नरक-तिर्यञ्चगति में गमन के कारणभूत अल्प एवं क्षणिक सुखप्रद किन्तु प्रचुर एवं दीर्घकालीन दुःखद फल को पाता है। यही उसकी बुरी तरह पराजय है।' तीन वणिक-पुत्रों के समान पुण्य-पाप के खेल में जय, पराजय, अर्धपराजय . इसी प्रकार तीन वणिक-पुत्रों की उपमा देकर आगे पुण्य-पाप के खेल में पूर्णजय, अर्धजय और पराजय का स्पष्ट दिग्दर्शन किया गया है। एक श्रेष्ठी ने अपने तीनों पुत्रों की कुशलता की परीक्षा के लिए प्रत्येक पुत्र को एक-एक हजार स्वर्णमुद्राएँ देकर परदेश कमाने के लिए भेजा। उनमें से एक पुत्र ने सोचा-पिताजी के पास धन की क्या कमी है ? खाओ, पीओ, ऐश आराम करो और सैर-सपाटा करो। यही जिंदगी का सार है। यह सोचकर उसने इसी में मूलपूंजी भी खो दी, व्यापार कहाँ से करता? दूसरे वणिक्-पुत्र ने सोचा-पिताजी! ने कुछ सोचकर ही यह पूँजी दी है। इसलिए इसे सुरक्षित रखना चाहिए, ताकि पिताजी जब मांगें, तब इसे वापिस दे सकू। यह सोचकर उसने वह थैली ज्यों की त्यों सुरक्षित रख ली। थोड़ा बहुत व्यवसाय करता, उसी से गुजारा चलाने लगा। तीसरा पुत्र बहुत समझदार था । उसने सोचा-पिताजी ने यह पूँजी यों ही रखने के लिए नहीं दी है, इसमें वृद्धि करनी चाहिए। उसने अपना व्यवसाय फैलाया और एक ही वर्ष में सम्पत्ति चौगुनी कर ली। १. देखें-उत्तराध्ययन सूत्र अ.७ गा. ११ की व्याख्या Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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