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पुण्य-पाप के फल : हार और जीत के रूप में ४६३
निष्कर्ष यह है कि कामभोगों की आसक्ति से होने वाला पाप अल्प सुखरूप है, प्रचुर दुःखमय है। इसमें हार से घोर पश्चात्ताप होता है, जबकि नियम, यम, व्रत, त्यांग, तप से, दानादि से होने वाला पुण्य दिव्य सुखरूप फल प्रदान करता है । परन्तु पुण्य-पाप के खेल में अकुशल खिलाड़ी कामभोगों के या कषायों के प्रेयमार्ग की और दौड़ लगाता है, इससे वह महान् पुण्यराशि से अर्जित मनुष्यजन्म तथा पुण्यकर्म-उपार्जन करने के कारणभूत दान, दया, व्रत, नियम, तप, मनुष्यता आदि से पुण्यसंचय के अवसर खो देता है। वृद्धावस्था में वह पुनः उस पुण्यनिधि को लेने के लिए तत्पर होता है, पूर्वसंचित पुण्य-राशि भी काम, क्रोध, तृष्णा, वासना, लोभ आदि चोर पहले से ही हरण कर ले जाते हैं, वह हाथ मलता रह जाता है। यही उसकी करारी हार है।'
मगर
पुण्य और पाप के खेल में एक की हार और दूसरे की जीत : क्यों और कैसे?
पुण्य-पाप के खेल में जीत और हार के रूप में हम दो कथानायकों को प्रस्तुत कर सकते हैं। उनके नाम हैं- पुंण्डरीक और कण्डरीक । ये दोनों सहोदर भाई थे। दोनों पुण्डरीकिणी नगरी के राजा महापद्म और रानी पद्मावती के पुत्र थे। महापद्म राजा जब धर्मघोष मुनि से संयम लेने को तैयार हुए तो बड़े पुत्र पुण्डरीक को राजा और छोटे पुत्र कण्डरीक को युवराज पद दे दिया। कुछ अर्से बाद धर्मघोष मुनि पुनः उस नगरी में पधारे तो महाराज पुण्डरीक ने श्रावक धर्म, और युवराज कण्डरीक ने मुनिधर्म स्वीकार किया।
दीक्षा लेने के पश्चात् मुनि कण्डरीक साधनापथ पर मुस्तैदी के साथ आगे बढ़ रहे थे, कि अचानक अरस-विरस आहार से उनके शरीर में दाहज्वर रोग हो गया। उनकी असह्य पीड़ा दर्शनार्थ आए हुए महाराज पुण्डरीक से देखी नहीं गई। उन्होंने अपनी दानशाला में रहकर समुचित औषधोपचार कराने की प्रार्थना की। महास्थविर धर्मघोष मुनि की आज्ञा लेकर वे राजा पुण्डरीक की दानशाला में रहकर चिकित्सा कराने लगे। औषध और समुचित पथ्यसेवन से मुनि का तन तो स्वस्थ हो गया, परन्तु मन उन सरस-स्वादिष्ट भोजनों में आसक्त हो गया, सुखशीलता ढूंढने लगा । आचारशैथिल्य के कारण पुनः गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने और मौज-शौक करने की भावना अंगड़ाई लेने लगी।
एक दिन पुण्डरीक राजा कण्डरीक मुनि के दर्शनार्थ आए और उन्होंने उनसे सुखसाता पूछी तो कुछ देर तक मौन और उदास रहे। फिर दूसरी तीसरी बार पूछा1 'मुनिवर ! आपके सुखसाता तो है न ?' तब उन्होंने साफ-साफ कह दिया- "सुखसाता तो
१. उत्तराध्ययन अ. ७ की गाथा ११, १२ की व्याख्या ।
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