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________________ २८ कर्म-विज्ञान : भाग - २ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता ( ४ ) मुमुक्षु एवं आत्मार्थी मानव के चित्त में राग-द्वेषादि के संतापकारक भाव उत्पन्न नहीं होते, वह अतीव शान्ति और निराकुलता का अनुभव करता है। व्यायामादि अभ्यास के समान कर्मविज्ञान के अभ्यास से महालाभ जिस प्रकार व्यायाम, योगासन और प्राणायाम आदि का सम्यक् अभ्यासी व्यक्ति व्याधियों एवं पीड़ाओं के आक्रमण से प्रायः बचा रहता है, और तन-मन में शक्ति, स्फूर्ति एवं स्वस्थ्यता अनुभव करता है, इसी प्रकार पुण्यानुबन्धी पुण्यवर्द्धक कर्मविज्ञान के पुनः पुनः अध्ययन, मनन- चिन्तन एवं इसके समस्त वाङ्मय की वाचना, पृच्छा, पर्यट्टना (आवृत्ति), अनुप्रेक्षा एवं धर्मकथा के अनुशीलन- परिशीलनरूप आध्यात्मिक व्यायाम-प्राणायाम करने से आत्मा बलिष्ठ होकर स्वगुणनिष्ठ एवं स्वरूप-रमणरूप चारित्र में सुदृढ़ बनती है, फिर उसमें तथा उसके अधीनस्थ मन, बुद्धि, चित्त एवं हृदय भौतिक चमक-दमक, विकृति या उत्सुकता उत्पन्न नहीं कर सकती, और न ही मोह, काम-क्रोधादि विकार आत्मशक्ति का ह्रास कर सकते हैं। कर्मविज्ञान के चिन्तनरूप धर्मध्यान से रागादि की मन्दता शास्त्रकारों ने धर्मध्यान और शुक्लध्यान को कर्ममुक्ति (निर्वाण ) का कारण बताया है। धर्मध्यान का एक चरण है- विपाकविचय | ज्ञानावरणीयादि कर्मों के फल का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव के निमित्त से जो अनुभव होता है, उस ओर विवेकपूर्वक चित्तवृत्ति को टिकाना विपाकविचय धर्मध्यान है। कर्मों के विपाक आदि के विषय में मनोयोगपूर्वक चिन्तन-मनन- अनुप्रेक्षण आदि करने से रागादि की मन्दता होती है और कषायविजय का कार्य आसान हो जाता है । ' कर्मविज्ञान का अध्येता धमध्यान ध्याता हो जाता है कर्मविज्ञान के अध्येता को प्रारम्भिक अवस्था में मन को एकाग्र करना अत्यन्त कठिन होता है और मन को एकाग्र किये बिना धर्मध्यान हो नहीं सकता । किन्तु कर्मविज्ञान के गहन वन में प्रविष्ट होने के बाद चित्तवृत्ति स्वतः एकाग्र हो जाती है और पुनः पुनः कर्मविज्ञान के विविध पहलुओं पर मनन, चिन्तन, निदिध्यासन से प्रारम्भ में विकट एवं जटिल-सा लगने वाला कर्मविज्ञानरूपी वन रसप्रद लगने लगता है और फिर कर्मविज्ञान का अध्येता उसमें तन्मय होकर अध्येता से ध्याता बन जाता है। १. (क) महाबंध भा. १ प्रस्तावना (पं. सुमेरुचन्द्र दिवाकर) से भावांश अवतरित पृ. ३१-३२ (ख) “कर्मफलानुभवविवेकं प्रति प्रणिधानं विपाकविचयः । कर्मणां ज्ञानावर्णादीनां द्रव्य-क्षेत्र -काल- भव-भाव-प्रत्यय-फलानुभवनं प्रति प्रणिधानं विपाकविचयः ॥" - तत्त्वार्थ राजवार्तिक ३५३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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