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________________ ४४२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) होता है, और दूसरा भिखारी, इत्यादि इष्टसंयोग या इष्टवियोग पुण्य-पाप के फल नहीं हैं, तो ये सब किन कारणों से होते हैं ? इष्ट-अनिष्ट संयोग भी पुण्य पाप का फल नहीं इसका समाधान यह है कि धन आदि साधनों के होने न होने को या इष्ट-अनिष्ट संयोग-वियोगों को पुण्य-पाप का फल माना जाएगा, तब जिन साधनाशील अपरिग्रही या अकिंचन साधु-साध्वियों के पास धनादि साधन नहीं हैं, अथवा जिन साधुओं को इष्ट या अनिष्ट संयोग अथवा इष्टानिष्ट वियोग प्राप्त हैं, फिर भी वे समभाव में लीन हैं, स्वाधीन आत्मिक सुख और त्यागजन्य शान्ति में मग्न है, उनका पुण्य या सुख उन सम्पन्नों या इष्टसंयोग-प्राप्त व्यक्तियों से कई गुणा अधिक क्यों बताया गया है? वे तो अनुकूल साधनादि के प्राप्त होने की इच्छा भी प्रायः नहीं करते, न ही प्रतिकूल संयोगों की प्राप्ति होने पर दुःखानुभव करते हैं। जबकि धनादि सम्पन्न कई व्यक्ति या इष्टसंयोग-प्राप्त या शुभ-अवसरप्राप्त कतिपय व्यक्ति प्रायः अहर्निश चिन्ता, दुःख, रोग, शोक, अशान्ति, तनाव आदि से घिरे रहते हैं ? इसका क्या कारण है ? वस्तुतः बाह्य सामग्री एवं संयोग की प्राप्ति अप्राप्ति का कारण पुण्य-पाप न होकर जीव के कषायभाव या रागादि परिणाम हैं। ये कषाय या रागादि भाव ही हैं, जिनके निमित्त से व्यक्ति बाह्य परिग्रह पदार्थ को ममत्वपूर्वक ग्रहण करता है, अर्जन करता है, संचित करता है, फिर उसका संरक्षण करता है तथा वियोग होने पर दुःखित होता है, चिन्ता-शोक करता है; वह सुखाभास को सुख मानता है, प्रतिकूलता होने पर दुःख-वेदन करता है, वह पुण्य-पापजन्य नहीं स्वकीय कषायजन्य है। परिग्रहादि की न्यूनता : अधिक पुण्य कर्म का कारण : अधिक परिग्रह पुण्यकारक कैसे ? थोड़ी देर के लिए बाह्य सामग्री एवं परिस्थिति को पुण्य-पाप का फल मान लेने पर सैद्धान्तिक आपत्ति आ जाएगी । आगमों में तथा तत्त्वार्थसूत्र में ऊपर ऊपर के देवलोकों के देवों को गति, शरीर, परिग्रह और अभिमान से हीन - न्यून माना है। यदि देवलोक में प्राप्त होने वाली सामग्री पुण्य का फल है, तो ऊपर-ऊपर के देवलोकों में उत्तरोत्तर पुण्यराशि अधिक होने से उन्हें पुण्यसामग्री या भोगसामग्री अथवा सुखोपभोग के संयोगों की प्राप्ति विपुल मात्रा में होनी चाहिए, मगर ऐसा नहीं होता । अतः बाह्य सामग्री, अभीष्ट संयोग का मिलना न मिलना पुण्य का फल नहीं माना जाता ।' 9. (क) वही, प्रस्तावना से, पृ. २६ (ख) 'गति-शरीर-परिग्रहाभिमानतो हीना । ' - तत्त्वार्थसूत्र अ. ४, सू. २२ का विवेचन देखें ! Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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