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पुण्य-पापकर्म का फल : एक अनुचिन्तन ४४१
है-"शुभाशुभ कर्म को जीव स्वयं ही बदल सकता है, स्वयं ही अपनी आत्मा का उत्थान
और पतन कर सकता है।" शुभ-अशुभ कर्म शरीरादि कार्यों के प्रति निमित्त कारण, उपादानकारण नहीं ___जैन कर्मविज्ञान जीव की विभिन्न अवस्थाओं, शरीर, इन्द्रिय, वचन, मन, श्वासोच्छ्वास आदि कार्यों के प्रति शुभ-अशुभ कर्म को निमित्त कारण मानता है, किन्तु इन सभी कार्यों के प्रति वह कर्म को उपादानकारण नहीं मानता। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव
और भाव जिस कार्य के अनुकूल अथवा प्रतिकूल होते हैं, वे उसके निमित्त कारण कहे जा सकते हैं। निमित्त उपकारी या अपकारी हो सकते हैं, कर्ता नहीं हो सकते। कार्य अपने-अपने उपादान से होता है, किन्तु कार्यनिष्पत्ति के समय अन्य वस्तु की अनुकूलता निमित्तता का प्रयोजक है। घटादि कार्य अपने उपादानों से होते हैं, उनकी उत्पत्ति में बुद्धिमान् निमित्त देखा जाता है।
इसलिए नैयायिकों के मत के समान यावत्कार्यों के प्रति कर्म को निमित्त कारण नहीं माना जाता। अन्य शुभ-अशुभ कार्य अपने-अपने कारणों से होते हैं, कर्म उनका कारण नहीं है।
जैसे कि-पुत्र की प्राप्ति, उसका मर जाना, व्यापार में घाटा-नफा, अक्समात् मकान का गिर जाना, फसल का नष्ट हो जाना, आकस्मिक दुर्घटना हो जाना, ऋतु का अनुकूल या प्रतिकूल हो जाना, दुष्काल या सुकाल होना, वृष्टि होना या न होना, शरीर में रोगादि का होना, इष्ट-अनिष्ट संयोग तथा वियोग की प्राप्ति, ये और ऐसे कार्यों के प्रति शुभाशुभ कर्म कारण नहीं है। शुभ (पुण्य) या अशुभ (पाप) कर्म का उदय होने पर ये सब फलदान में सहायक निमित्त बन सकते हैं।'
वास्तव में इष्ट-अनिष्ट-संयोग या इष्ट-अनिष्ट-वियोग आदि जितने भी कार्य हैं, वे पुण्य या पाप के कार्य (फल) नहीं है, पुण्य-पाप के उदय में आने (फलोन्मुख होने) पर ये निमित्त बन सकते है। निमित्त बनना और बात है और कार्य होना अन्य। शुभ-अशुभ कर्मोदय के निमित्त को कर्म का कार्य कहना युक्ति-संगत और सिद्धान्त-सम्मत नहीं है। भोगादि के साधन अधिक होने से पुण्य अधिक नहीं
प्रश्न होता है-एक व्यक्ति सम्पन्न घर में पैदा होता है, दूसरा दरिद्र घर में; एक स्वर्ग में जाकर सुख पाता है, एक नरक में अनेकानेक दुःख भोगता है, एक ऐश्वर्यशाली
१. महाबंधो भाग-२ प्रस्तावना (कर्ममीमांसा) से पू. २५-२६ २. महाबंधो भा. २ प्रस्तावना (कर्ममीमांसा) से पृ. २६
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