SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 449
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुण्य-पापकर्म का फल : एक अनुचिन्तन ४२९ (२) कोढ़, (३) राजयक्ष्मा, (४) अपस्मार (मृगी-हिस्टीरिया)(५) काणत्व, (६) जड़ता (अंगोपांगों में शून्यता), (७) कुणित्व (टूटापन, अंग विकलता या एक हाथ या पैर का छोटा या बड़ा होना), (८) कुब्जता (कुबड़ापन), (९) उदररोग (जलोदर, उदरशूल, गैस, अल्सर आदि), (१०) मूक रोग (गूगापन), (११) शोथ रोग (सूजन, फोता बढ़ना या फाइलेरिया), (१२) भस्मकरोग, (१३) कम्पवात, (१४) पीठसी पंगुता, (१५) श्लीपद रोग (हाथीपगा) और (१६) मधुमेह (डायबिटीज)।" "इसके पश्चात् कई-कई लोग तो शूल (योनि शूल, सुजाक, भगंदर आदि) मरणान्तक आतंक (दुःसाध्य रोग) और अप्रत्याशित दुःखों से पीड़ित होते हैं।" "बहुत-से लोग इन पूर्वोक्त रोगों से उत्पन्न दुःखों को जानकर तथा पीड़ा महसूस करते हुए भी इन निर्बल एवं निःसार नाशवान शरीर को सुख देने की या शरीर-सुख की कल्पना से नाना प्राणियों, पंचेन्द्रिय पशु-पक्षियों तथा मनुष्यों का वध करते-कराते हैं। ऐसे पापकर्मी मानव विषय-कषायों में मिथ्यात्वान्ध होकर पुनः पुनः अन्धकार में रहते हैं, फलतः वे नाना दुःखपूर्ण अवस्थाओं को एक बार या अनेक बार भोगते हैं। कर्मानुसार वे तीव्र मन्द फल का अनुभव करते हैं।' पुण्यकर्म भी स्वार्थ लोभादि से प्रेरित हो तो सात्त्विक सुखरूप फल प्राप्ति नहीं होती इसके विपरीत जो लोग पुण्यकर्म करते हैं, वे भी अगर पुण्य क्रियाएँ स्वार्थ, लोभ, भय, इहलौकिक-पारलौकिक कामभोगजन्य सुखों की वांछा से प्रेरित होकर करते हैं तो अपने पुण्य का सात्त्विक फल प्राप्त नहीं कर सकते। कदाचित् इस जन्म में या पूर्वजन्म में कृत पुण्यकर्म के फलस्वरूप उन्हें तथाकथित सुख के साधन (धन, वैभव, पद, प्रतिष्ठा, अधिकार) प्राप्त भी हो जाएँ, फिर भी वे उनके लिए सुखानुभव प्राप्त कराने में सक्षम नहीं हो सकते। सुख के तथाकथित साधन प्राप्त हो भी जाएँ, परन्तु वे साधन तब तक सुख की प्राप्ति नहीं करा सकते, जब तक उन साधनों का सम्यक् उपयोग करने की सम्यग्दृष्टि प्राप्त न हो जाए। इसलिए किसी मनुष्य को पूर्वोपार्जित पुण्य के फलस्वरूप सम्पत्ति, सत्ता, वैभव, पद आदि प्राप्त हो भी जाएं, फिर भी अगर उसकी दृष्टि सम्यक् नहीं है तो वह उनसे पुण्य १. अह पास, तेहिं तेहिं कुलेहिं आयत्ताए जायागंडी अदुवा कोढी, रायंसी अवमारियं। काणियं झिमियं चेव कुणियं खुज्जियं तहा। उदरिं पास मूयं च सूणिमं च गिलासिणिं। वेवई पीढसप्पिं च, सिलिवयं महुमेहणिं॥ सोलस एते रोगा अक्खाया अणुपुव्वसो। अहणं फुसति आयंका, फासा य असमंजसा॥ मरणं तेसिं संपेहाए उववायं चवणं च णच्चा। परिपागं च संपेहाए तं सुणेह जहा-तहा॥ -आचारांग १/६/१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy