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________________ ४२८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) यह है सम्यग्ज्ञान एवं आत्मबोध का प्रभाव। चाहता है सुखरूप पुण्यफल, किन्तु प्रवृत्त होता है दुःखफलदायी पापकर्म में . जिसे इस प्रकार पुण्य-पाप, बन्ध-मोक्ष का ज्ञान सुदृढ़ हो जाता है, वह फिर पापकर्म में प्रवृत्त होने से बचेगा; फलतः वह पापकर्म के कटुफल से बच जाएगा। किन्तु मनुष्य चाहता तो है-पुण्यफल, और उससे प्राप्त होने वाला सात्त्विक सुख; किन्तु पापकों या विषयासक्तिजन्य पापों में सुख खोजता है, उसकी यह खोज निश्चय ही विपरीत दिशा में दौड़ने के समान है। क्रोधादि कषाय या विषयसुख, सेवनकाल में अमृतोपम मधुर लगते हैं, किन्तु परिणाम में विषफल के समान दुःखदायी होते हैं। इस विपरीत दृष्टि एवं मिथ्याज्ञान के कारण ही वे पापकर्म में बार-बार प्रवृत्त होते हैं, जिसका फल न चाहते हुए भी दुःखबहुल ही आता है। सुख की लालसा रखते हुए भी अधिकांश आतंकवादी, युद्धवादी अथवा आसुरीप्रकृति के लोग विभिन्न हिंसादि पापकर्मों में प्रवृत्त होते हैं, उनके दुष्परिणामस्वरूप अनके दुःखों, मानसिक सन्तापों, क्लेशों, रोगों और कष्टों को पाते हुए भी वे उन पापकर्मों से विरत नहीं होते। निम्नोक्त श्लोक में मनुष्य की इसी विपरीत बुद्धि का चित्रण किया गया है पुण्यस्य फलमिच्छन्ति, पुण्यं नेच्छन्ति मानवाः। न पापफलमिच्छन्ति, पापं कुर्वन्ति यत्नतः॥ बहुत-से मनुष्य पुण्य के फल (सुख) की तो कामना करते हैं, किन्तु पुण्यकर्म करना नहीं चाहते।' वे पाप के फल (दुःख) को चाहते नहीं। फिर भी पापकर्म प्रयत्नपूर्वक किया करते हैं। पापकर्म के फलस्वरूप १६ दुःसाध्य रोगों की उत्पत्ति भगवान् महावीर ने उन प्रज्ञान्ध या मोहान्ध जीवों की आँखें खोलने के लिए आचारांग सूत्र में बताया है-“अब तू देख! विविध पापकर्मों में प्रवृत्त वे मोहमूढ़ मानव पापकर्मों के फलस्वरूप उन-उन कुलों में उत्पन्न होकर अपने-अपने (पापकर्मों का फल भोगने के लिए) निम्नोक्त १६ दुःसाध्य रोगों से आक्रान्त हो जाते हैं-(१) गण्डमाला, जया पुण्णं च पावं च बंधे मुक्खे च जाणइ। तया निस्विंदए भोए जे दिव्वे जे य माणुसे॥१६॥ जया निव्विंदए भोए, जे दिव्वे जे य माणुसे। तया चयइ संजोगं, सब्भिंतर-बाहिरं॥१७॥ -दशवै. अ. ४ गा. १३ से १७ १. केवल अपने ही लिए न जीएं (श्रीराम शर्मा आचार्य) से सारांश उद्धृत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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