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पुण्य-पापकर्म का फल : एक अनुचिन्तन
देते। क्या किसी चोर, डाकू, उचक्के, ठग आदि को अपहरण की हुई वस्तु को निश्चिंत होकर भोगते देखा है ? चोरी-डकैती का माल उसकी छाती पर बैठे साँप की तरह उसे हर समय डराता रहता है।
पापकर्म के प्रभाव से जीव नाना प्रकार के दुःख भोगता है। पापकर्मी यहाँ भी दुःख उठाता है, और परलोक में उसे नाना प्रकार के दुःख भोगने पड़ते हैं। पापकर्म के फलस्वरूप उसे यहाँ तथा आगे भी प्रिय वस्तुओं का वियोग और अप्रिय वस्तुओं का संयोग मिलता है।"
जैन दृष्टि से पापकर्म के फल
'धवला' में पापफल के विषय में प्रश्न उठाकर समाधान किया गया है - " (प्र.) पापकर्म के फल कौन-कौन से हैं?, (उ. ) 'नरक में, तिर्यञ्च में तथा कुमानुष की योनियों में जन्म, जरा, मृत्यु, व्याधि, वेदना और दरिद्रता आदि की प्राप्ति पाप के फल हैं।" 'प्रवचनसार' में कहा गया है - 'अशुभ (पापकर्म) के उदय से कुमानुष, तिर्यंच और नारक होकर सदैव हजारों दुःखों से पीड़ित होता हुआ जीव अनन्त संसार में परिभ्रमण करता रहता है।” इसलिए हिंसादि सभी पापकर्म दुःख और अनिष्ट संयोग पैदा करने वाले हैं।
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इहलोक में भी पापकर्म का फल अतीव भयंकर दुःखरूप
पापकर्म कितना ही छिपाकर करें, कभी न कभी तो वह खुल ही जाता है। पापकर्म जब खुलते हैं, तब जेल, कैद, कचहरी में कलंकित, पुलिस द्वारा मार-पीट आदि नाना प्रकार के कठोर दण्ड भोगने पड़ते हैं। लोकापवाद, लांछना और बदनामी की आग में जलना पड़ता है। बहुत बार तो बेईमानी और अनैतिक कमाई घर की रही सही सत्सम्पत्ति को भी ले डूबती है और मनुष्य को दरिद्र एवं फटेहाल बना देती है।
पापकर्म परायण मनुष्य की समस्त वृत्तियाँ चोर जैसी ही निकृष्ट एवं निम्न कोटि की हो जाती हैं। ऐसी स्थिति में पापकर्मी की कौन-सी दुर्दशा नहीं होती होगी । पापकर्म
१. केवल अपने ही लिए न जीएँ (श्रीराम शर्मा आचार्य) से यत्किंचिद् भावांश ग्रहण, पृ. ११० २. (क) (प्र.) काणि पावफलाणि ?
(उ.) णिरय-तिरिय-कुमाणुस जोणीसु जाइ-मरण - जरा वाहि-वेयणा-दालिद्दादीणि।” - धवला १/१, १, २/१०५/५
(ख) असुहोदएण आदा कुणरो तिरियो भवीय णेरइयो ।
दुक्खसहस्सेहिं सदा अभिधुदो भमति अच्चता । " (ग) हिंसादिष्विहामुत्रचापायावद्यदर्शनम्।”
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- प्रवचनसार (सु.) १२ - तत्त्वार्थसूत्र ७/९
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