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________________ ४१८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) पूर्वकृत अतिशय पुण्य से सम्पन्न जीव को मनुष्यजन्म में दशविध भोगसामग्री उत्तराध्ययनसूत्र में बताया गया है कि उच्च देवलोक की स्थिति पूर्ण करके वे पुण्यशाली जीव मनुष्ययोनि पाकर दशविध भोगसामग्री से युक्त स्थान में जन्म लेते हैं। वे दस स्थान इस प्रकार हैं-(१) क्षेत्र, (२) वास्तु (गृह प्रासाद), (३) स्वर्ण, (४) पशु-समूह ये चार कामस्कन्ध तथा (१) दास-पोष्य (२) मित्रवान् (३) उत्तम ज्ञाति सम्पन्न, (४) उच्चगोत्र, (५) सुरूप, (६) स्वस्थ, (७) महाप्रज्ञ, (८) अभिजात (कुलीन), (९) यशस्वी और (१०) बलवान्।' वस्तुतः ये सब पूर्वोपार्जित पुण्यराशि के फल हैं, जिनका उपभोग अगले (मनुष्य) जन्म में मनुष्य करता है। पापकर्म करने में अन्तरात्मा को कितना दुःख, कितना सुख? इसके विपरीत पापकर्म का फल दुःखकारक है, कटु है, भोगने में बहुत दुःखद एवं कष्टकारक है। पापकर्म पुण्यकर्म का विरोधी है। जीव को दुःख भोगने में कारणभूत जो अशुभकर्म है, वह द्रव्यपाप है और उस अशुभकर्म को उत्पन्न करने में कारणभूत अशुभ या मलिन अध्यवसाय (परिणाम) भावपाप है। पापकर्म करना आसान है, मनुष्य अन्तरात्मा की आवाज को दबाकर, क्रूरहृदय बनकर हिंसादि पापकर्मों में प्रत्यक्ष रूप से प्रवृत्त होता है, तब अंदर से तो आत्मा बार-बार कचोटती रहती है, वह इस कुकृत्य को न करने के लिए कहती है, तब उसे थोड़ा कष्ट नहीं भोगना पड़ता। समाज से, राज्य से छिपने में; एक झूठ को छिपाने के लिए अनेक झूठ-फरेब करने में; राजदण्ड से, सामाजिक निन्दा व बदनामी से डरने में; अपयश, और कलंक से बचने के लिए उलट-फेर करने और उलटा-सीधा प्रयास करने में उस पापाचारणपरायण व्यक्ति के अन्तःकरण को कितना कष्ट होता होगा? इसका अनुमान किया जा सकता है। बेईमानी, भ्रष्टाचार, तस्कर व्यापार एवं चोरी-डकैती से, ठगी से या धोखेबाजी से धन कमाने तथा सुख-साधन बढ़ाने वाले कभी सुख-चैन की सांस लेते नहीं दिखाई १. तत्थ ठिच्चा जहाठाणं जक्खा आउक्खए चुया। उति माणुसं जोणिं से दसंगेऽभिजायई॥ खेतं वत्युं हिरण्णं च पसवो, दासपोरुसं। चत्तारि कामखंधाणि तत्थ से उवज्जइ॥ मितवं नाइवं होइ, उच्चागोए य वण्णवं । अप्पायक महापन्ने अभिजाए जसोबले॥ -उत्तराध्ययन ३/१६, १७, १८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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