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________________ ४१४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) पुण्य और पाप का अस्तित्व : एक अनुचिन्तन सूत्रकृतांग सूत्र में पुण्य-पाप के अस्तित्व के सम्बन्ध में अन्यतीर्थिकों का पूर्वपक्ष प्रस्तुत करके उनका अस्तित्व सिद्ध किया गया है। कई अन्यतीर्थिकों का कथन है-इस जगत् में पुण्य नाम का कोई पदार्थ नहीं, एकमात्र पाप ही है। पाप कम हो जाने पर सुख उत्पन्न होता है, बढ़ जाने पर दुःख । दूसरे दार्शनिक कहते हैं-जगत् में पाप नाम का कोई पदार्थ नहीं है, एकमात्र पुण्य ही है। पुण्य घट जाता है, तब दुःख उत्पन्न होता है और बढ़ जाता है, तब सुख उत्पन्न होता तीसरे मतवादी कहते हैं-पुण्य या पाप दोनों ही पदार्थ मिथ्या हैं, क्योंकि जगत की विचित्रता, नियति, स्वभाव आदि के कारण होती है। इसका समाधान शास्त्रकार करते हैं ये सभी दार्शनिक भ्रम में हैं। पुण्य और पाप दोनों का नियत सम्बन्ध है। एक का अस्तित्व मानने पर दूसरे का अस्तित्व मानना ही पड़ेगा। यदि सब कुछ नियति या स्वभाव आदि से होने लगे तो क्यों कोई सत्कार्य में प्रवृत्त होगा? फिर तो किसी को अपने द्वारा कृत शुभाशुभ क्रिया का फल भी प्राप्त नहीं होगा। परन्तु ऐसा होता नहीं। अतः पुण्य और पाप दोनों का स्वतन्त्र अस्तित्व मानना ही ठीक पुण्य की महिमा पुण्यशाली के मन में किसी भी स्थान या किसी भी काल में दुःख का कोई कारण उत्पन्न नहीं होता। यद्यपि स्थूल दृष्टि वाले लोगों की दृष्टि में उसका जीवन दुःख और अभाव से पीड़ित मालूम देगा, फिर भी उसकी आत्मा में भरी पुण्यराशि उसके तन-मन पर दुःख का प्रभाव नहीं पड़ने देगी। पुण्यपरमार्थी सत्कर्मी कदाचित् धनहीन रहता है, तब भी उसका धैर्य उसे सदैव प्रसन्न एवं आन्तरिक सम्पन्नता से ओतप्रोत ही रखता है। बाह्य धन रहे या जाए, उसकी आत्मिक प्रसन्नता और मस्ती में कोई अन्तर नहीं पड़ता। वस्तुतः पुण्यकर्म का निश्चित फल आत्मिक सुख एवं आत्मसन्तोष है। १. देखें-'णत्थि पुण्णे व पावे वा, णेवं सणं निवेसए। अत्थि पुण्णे व पावे वा, एवं सणं निवेसए।' ___ -सूत्रकृतांग श्रु. २ अ. ५ सू. ७६९ का मूलपाठ, अनुवाद एवं विवेचन (आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर) पृ. १५३, १५७ २. केवल अपने लिए ही न जीएं (श्रीराम शर्मा आचार्य) से भावांश ग्रहण, पृ. १११ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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