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पुण्य-पापकर्म का फल : एक अनुचिन्तन ४१३
कर्म करता है, उसका तथारूप फल अवश्य ही प्राप्त करता है, इसमें कोई सन्देह नहीं है । ””
पुण्य और पाप का फल : सुख और दुःख
में
निष्कर्ष यह है कि आत्मा रूपी कर्मक्षेत्र में व्यक्ति जैसा शुभ या अशुभ कर्म - बीज बोता है, उसका फल भी शुभ या अशुभ रूप में प्राप्त करता है। जैन, बौद्ध, वैदिक दर्शनों शुभ या कुशल कर्म को पुण्य और अशुभ या अकुशल कर्म को पाप कहा गया है। व्यक्ति पुण्य कर्म का शुभ फल पाता है, उससे मन में सुखानुभूति प्राप्त होती है, फल भोगने में सुखदायक प्रतीत होता है।
पुण्य का
'योगदर्शन' में पुण्य-पाप का साक्षात् फल बताते हुए कहा गया है - " वे जन्म, आयु और भोग (क्रमशः) पुण्य-पाप हेतुक होने से आल्हाद और परितापरूप (सुख-दुःखरूप) फल वाले होते हैं। अर्थात्-पुण्य हेतु वाले जाति (जन्म), आयु और भोग सुखमय तथा पाप हेतु वाले जाति, आयु और भोग दुःखरूप होते हैं। निष्कर्ष यह है कि पुण्य का फल सुख-शान्ति और पाप का फल दुःख और अशान्ति है । पुण्यकर्म लोकपरलोक, जन्म-जन्मान्तर, सर्वत्र तथा आदि, मध्य और अन्त तीनों कालों में सदैव सुखदायक होते हैं।
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पुण्यपरमार्थ के फलस्वरूप व्यक्ति को अच्छी-बुरी जो भी साधन सामग्री, सम्पदा, समृद्धि आदि मिलती है, उसमें सुख-शान्ति और सन्तोषवृत्ति प्राप्त होती है। जो शुभ विचार, शुभ वचन और शुभ कार्य के साथ पुण्यकर्म में रत रहता है, उसे राज्य, समाज और जाति का भय नहीं रहता। उसे न ही लोक की चिन्ता करनी पड़ती है और न परलोक की। सचमुच, पुण्यशाली का हृदय प्रसन्नता, प्रफुल्लता तथा सुख-शान्ति से 'ओतप्रोत रहता है। वह चैन की नींद सोता है, और निश्चिन्त होकर विचरण करता है। यही पुण्य का वास्तविक फल है।
१. (क) यदाचरति कल्याणि ! शुभं वा यदि वाऽशुभम् ।
तदेव लभते भद्रे ! कर्ता कर्मजमात्मनः ॥ - वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड ६/६
(ख) 'जहा कडं कम्म तहासि भारे।'
(ग) जं जारिसं पुव्वमकासि कम्मं तमेव आगच्छति सम्पराए । (घ) यत्करोत्यशुभं कर्म, शुभं वा यदि सत्तम ।
अवश्यं तत्समाप्नोति, पुरुषो नाऽत्र संशयः ॥
- महाभारत, वनपर्व, अ. २०८
२. देखें-ते आल्हाद-परिताप फलाः पुण्यापुण्य-हेतुत्वात् । ' - योगदर्शन २ / १४ पर विवेचन, (डॉ.
उदयवीर शास्त्री) पृ. १०५
३. केवल अपने लिए ही न जीएं (श्रीराम शर्मा आचार्य) से पृ. १११
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-सूत्रकृतांग १/५/१/२६ -वही, १/५/२/२३
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