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विविध कर्मफल : विभिन्न नियमों से बंधे हुए ४११ कर्मफल भोगते समय न तो दीन बनो, न ही मदान्ध बनो, किन्तु समभावस्थ रहो
एक आचार्य ने कर्मफल समभाव से भोगने की प्रेरणा देते हुए कहा- "सारा जगत् कर्मविपाक के अधीन है यह जानकर मुनि न तो दुःख में दीन बनता है और न ही सुख पाकर विस्मित होता है। "
कर्मों के सुख-दुःख रूप फल पाकर समभाव में स्थिर रहना ही सच्ची जीवन साधना है। सुखरूप फल पाकर उन्मत्त एवं मदान्ध हो जाना तथा दुःखरूप फल पाकर दीन-हीन एवं निराश हो जाना अज्ञानता है। ज्ञानी एवं सम्यग्दृष्टि तो यही सोचता है, कि कर्म बांधते समय मुझे सौ बार विचार करना चाहिए था, परन्तु नहीं किया, अब उसका फल भोगते समय दीनता - विषमता मन में क्यों लाऊँ और क्यों दिखाऊँ ? ऐसा ज्ञानी पुरुष कषायादि भावों के निमित्त से हो जाने वाले कषायमोहनीय के तीव्र विपाक से बचकर सर्वकर्म क्षय करके सिद्ध-बुद्ध मुक्त हो जाता है। ज्ञानी एवं सम्यग्दृष्टि तो शुभकर्म के उदय में भी विस्मित, हर्षित, उन्मत्त एवं अहंकारग्रस्त नहीं होता। वह जानता है कि तात्त्विक दृष्टि से शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्म आत्मा को आवृत विकृत व कुण्ठित करते हैं। सूर्य काले कजरारे मेघों में छिपे या सफेद मेघों में, उसके प्रकाश में अवश्य ही अन्तर आ जाता है। इसी प्रकार शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्म आत्मा के गुणों को आच्छादित करने वाले होने से हेय ही हैं। साधक दशा में भले ही शुभ उपादेय रहे, परन्तु मोक्ष तो दोनों के क्षय से ही होगा । '
निष्कर्ष यह है कि विभिन्न कर्मफलों के विपाकों में निमित्तभूत द्रव्य-क्षेत्रादि से प्रतिबद्ध नियमों को जानकर उनसे लाभ उठाना चाहिए।
१. (क) दुःखं प्राप्य न दीनः स्यात्, सुखं प्राप्य च विस्मितः ।
मुनिः कर्मविपाकस्य, जानन् परवशं जगत्॥
(ख) जिनवाणी कर्म-सिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित कर्मविपाक (लालचन्द्रजैन) लेख से, '
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