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________________ ४१० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) था, अच्छे भावों का धनी था, किन्तु दूसरे समय में उसी व्यक्ति का मनोभाव बदला हुआ होता है, वह चिढ़कर झुंझलाकर बोलता है। एक ही व्यक्ति ऐसा क्यों हुआ ? इसका समाधान भावों के निमित्त से कर्मविपाक के नियमों को जानने से ही हो सकता है । किन भावों के निमित्त से कौन-से कर्म का विपाक (फलोदय) होता है, इसके विभिन्न नियम जैन-कर्मविज्ञान-मर्मज्ञों के द्वारा प्ररूपित आगमों तथा ग्रन्थों से जाने जा सकते हैं। अपने अनुभवों से कर्मविज्ञानरसिक उन नियमों को हृदयंगम कर सकता है। और फिर संवर- निर्जरारूप धर्म की सम्यक् आराधना और बाह्यान्तर तप:साधना कर सकता है। ऐसा करके वह अशुभ कर्म-विपाक को शुभ कर्म-विपाक में बदल सकता है और आने वाली बुराइयों और विपत्तियों से अपनी रक्षा कर सकता है। अर्जुन मुनि ने भावों के संक्रमण एवं परिवर्तन द्वारा इस सत्य को साकार कर दिया अर्जुनमाली एक दिन हत्यारा था । प्रतिदिन सात व्यक्तियों की हत्या करने की दुर्भावना संजोए हुए था; किन्तु सुदर्शन श्रमणोपासक के निमित्त से उसके भावों में परिवर्तन हुआ, फिर भगवान् महावीर के पास जाने पर उसके भावों में हार्दिक परिवर्तन हुआ, सारी परिस्थिति ही फिर तो बदल गई। अर्जुनमाली से वह अर्जुन मुनि बना। आजीवन छट्ठ (दो) उपवास के अनन्तर पारणा करने का संकल्प किया। जिस राजगृह के लोगों के सम्बन्धियों को उसने मारा था, प्रायः उन्हीं के घरों में पारणे के दिन भिक्षा के लिए जाते थे। लोगों ने उनकी भर्त्सना की । डंडों, मुक्कों, लाठियों आदि का प्रहार किया। किसी ने गाली दी, किसी ने ठंडा, बासी, रूखा-सूखा आहार दिया, तो प्रासुक पानी नहीं दिया। किसी ने सिर्फ प्रासुक पानी दिया तो आहार न दिया । इन सब कठोर परीषहों और उपसर्गों के प्रसंग पर दूसरा होता तो तुरन्त भड़क उठता, क्रोधादि कषायभाव से ओतप्रोत होकर कषायमोहनीय कर्मों का विपाक तीव्र कर लेता। मगर अर्जुनमुनि ने समता और क्षमा का अमोघशस्त्र अपनाया, कषाय-आम्नव के बदले अकषाय-संवर का आश्रय लिया, आहार- पानी न मिला तो भावपूर्वक बाह्य आभ्यन्तर तप का आश्रय लिया। भेदविज्ञान और कायोत्सर्ग की भावना को साकार कर दिया। फलतः जो नरक गति का कर्म दीर्घतर स्थितिबन्ध तथा तीव्र अनुभाव-बन्ध था, उससे नरकगति का कर्मविपाक (फल) प्राप्त होने वाला था, उसके बदले चार घाती रूप और चार अघातीरूप, आठ ही कर्मों को केवल छह महीनों में ही क्षय करके वे सिद्ध बुद्ध एवं सर्वकर्म मुक्त हो गए।' १. देखें - अन्तकृद्दशा सूत्र में अर्जुनमालाकार का वर्णन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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