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विविध कर्मफल : विभिन्न नियमों से बंधे हुए ३८७ जीव के द्वारा निष्पादित का अर्थ है-जीव के द्वारा ज्ञानावरणीय आदि के रूप में व्यवस्थापित किया गया ज्ञानावरणीय आदि कर्म। आशय यह है कि कर्मबन्ध के समय जीव सर्वप्रथम कर्मवर्गणा के साधारण (अविशिष्ट) पुद्गलों को ग्रहण करता है। अर्थात् उस समय ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय आदि भेद नहीं होता। तत्पश्चात् वह अनाभोगिक वीर्य के द्वारा उसी कर्मबन्ध के समय ज्ञानावरणीय आदि कर्म को पृथक् पृथक् विशेष रूप से परिणत-व्यवस्थापित करता है।
जैसे-विभिन्न प्रकार आहार के पुद्गल उदर में जाने पर रसादि रूप धातुओं के रूप में परिणत किया जाता है। इसी प्रकार साधारण कर्म वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके ज्ञानावरणीय आदि विशिष्ट रूपों में परिणत करना-निर्वर्तन (निष्पादित) करना कहलाता है।
जीव के द्वारा परिणामित का अर्थ है-प्रत्येक कर्म के विशिष्ट कारणों से उत्तरोत्तर परिणाम को प्राप्त किया गया कर्म। जैसे-ज्ञानप्रद्वेष, ज्ञाननिह्नव आदि विशिष्ट कारणों से उत्तरोत्तर परिणाम प्राप्त ज्ञानावरणीय कर्म। पूर्वोक्त तीनों प्रकार के कर्म फल देने योग्य होते हैं।' फल देने (विपाक) योग्य कर्म : स्वयं उदीर्ण, परेण उदीरित तथा उभयेन उदीर्यमाण
- (१४, १५, १६) स्वयं उदीर्ण, पर के द्वारा उदीरित या स्व-पर दोनों के द्वारा उदीरित-स्वयं उदीरणा करके जो कर्म उदय को प्राप्त कराया गया है, वह स्वयं उदीर्ण कर्म कहलाता है। जैसे-भगवान् महावीर ने अपने विशिष्ट ज्ञान के प्रकाश में देखा कि कर्मों का जत्था बहुत अधिक है और आयुष्य कर्म बहुत थोड़ा है, अतः उतने समय में ही . कर्मों को समभाव से भोग कर क्षय करने हेतु उन्होंने अनार्य देश में विहार किया। वहाँ उन पर आए हुए घोर उपसर्गों तथा परीषहों को उन्होंने समभाव से सहन करके अधिकांश अवशिष्ट अघातिकों का क्षय किया। फिर भी शेष बचे हुए कर्मों को उन्होंने रक्तातिसार व्याधि, गोशालक द्वारा कृत आतंक, सर्वानुभूति और सुनक्षत्र इन मुनिद्वय का उसके द्वारा घात आदि प्रसंगों पर समभाव से सहकर उन कर्मों का क्षय किया। इन प्रकार भगवान् महावीर ने स्वयं उदीर्ण करके, तथा गोशालक आदि द्वारा परेण उदीरित करके कर्मों को उदयावस्था में प्राप्त होते ही समभाव से भोग कर क्षय किया।
पर के द्वारा उदीरित वे कर्म हैं, जो दूसरे के निमित्त से उदीरणा कर उदय को प्राप्त कराये जाते हैं। कई आदमी विमान से यात्रा कर रहे थे। अक्समात् विमान में आग
१. देखें-प्रज्ञापना सूत्र पद २३ के पंचम अनुभावद्वार का विवेचन (आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर) . पृ.१९-२०
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